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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा करेगा। आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ दे, वैसा योग है यह दुष्कृत गर्दा। इससे मुख्य रूप से दो प्रकार के फल की प्राप्ति होती है 1. वर्तमान में दुःखों को सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है। 2. अनिकाचित कर्मों का नाश होता है। इस योग का सबसे बड़ा फल है कि धर्मी आत्मा को यहाँ सहिष्णुता प्राप्त होती है। फिर चाहे जितनी भयंकर आपत्ति जीवन में आ जाए, उनको सहन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। धर्मी आत्मा समझने लग जाती है कि सांसारिक सुख जिस प्रकार एक भ्रम है, वैसे ही दुःख भी भ्रम है। किन्तु अनादिकाल के अभ्यास के कारण अधिकतर जीव दुःख आने पर राग-द्वेष से ग्रसित बन जाते हैं। राग-द्वेष आत्मा के दो बड़े रोग हैं। कैंसर शरीर का रोग है। शरीर और आत्मा का संयोग ही पहले जीव को दुःखी करते हैं। धर्म में जैसे-जैसे परिणमन करते जाएंगे, वैसे-वैसे उसकी सहिष्णुता बढ़ती जाएगी। - धर्म के द्वारा दो प्रकार के लाभ होते हैं- अनिकाचित कर्म समाप्त हो जाते हैं साथ ही निकाचित कर्म के उदय समय में सहिष्णुता के भाव जागृत होते हैं। . अनादिकाल से जीव ने प्रणिधान पूर्वक पापकर्मों को बाँधा था और अभी भी वैसे ही पापों को बांध रहा है। इस प्रकार प्रणिधान पूर्वक किए गये पापों से कर्मों का अनुबन्ध होता है, यानि इन पापों की परम्परा चलती रहती है। प्रणिधान के कारण हमने पापकर्मों का अनुबध किया है। जिसकी परम्परा चली आ रही है। तीव्र रस वाले कर्मों के अनुबन्ध उदय में आते समय, उतनी ही तीव्रता से कर्मफल भोगने पड़ते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज तक हमने जितने भी प्रणिधान पूर्वक पापों के अनुबध किये हैं, उनसे भी ज्यादा प्रणिधान पूर्वक दुष्कृत की गर्दा में स्वयं को लगाना होगा। इससे अनादि काल के अशुभ कर्मों का बन्ध टूटेगा और रस भी फीका पड़ेगा। इससे कमी अशुभ कर्म भोगना भी नहीं पड़ेगा। दुष्कृत गर्दा से ही जीव संसार की परम्परा के बन्धन को छोड़ सकेगा। इसके बिना यह परम्परा समाप्त नहीं हो पायेगी। . अनुबन्ध को तोड़ते-तोड़ते कभी उच्च कोटि के भाव आ जाने से सम्पूर्ण कर्म टूट श्री जाते हैं। दुष्कृत गर्दा से जीव अपने पापों को धो सकता है। इससे अशुभ फल भी धुल जाते हैं। 163 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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