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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गही थी, परंतु साधु के प्रति भक्ति-प्रेम-आदर के भाव से उसकी नरक टली। किस समय कौन से जीव कैसे कर्म बाँध लेते हैं, उन सभी का लेखा-जोखा आत्मा के कंप्यूटर में फीड होता रहता है। हर समय के अलग-अलग अध्यवसाय, भाव-परिणाम का आत्मा बध करती है। ये कर्म किसी जीव को नहीं छोड़ते हैं। काल के परिपक्व होते ही हर जीव को अपने कर्मानुसार वहाँ जाना पड़ता है। कहते हैं, हमारे द्वारा जितने जीवों की हिंसा की जाती है, उनसे हजार गुणा ज्यादा बार हमें पुनः जन्म लेकर मरना पड़ता है। इस जिनशासन को प्राप्त करने के पश्चात् संभल जाना है। अर्थ और काम के पीछे दौड़ लगाना छोड़ देना है। जिनशासन को समर्पित हो जाना है। . ... - जगडूशाह ने अनाज का संग्रह किया, किन्तु बेचकर कमाने के लिए नहीं बल्कि भूखे व्यक्ति को, गरीब को देने के लिए। उन्होंने उस स्थान पर लिखवा दिया- 'यह अनाज गरीबों के लिए है।' जिनशासन रूपी खजाना प्राप्त होने के पश्चात् अपनी तिजोरी को खोल दो। जो मिला है, वह सब परमात्मा का दिया हुआ होने से वह परमात्मा का है। मेरा तो कुछ भी नहीं हैं। मैं तो मात्र मुनीम हूँ। नौकरी करता हूँ। तनख्वाह प्राप्त करता हूँ। अतः मुझे इस सम्पत्ति को मौज-शौक में उड़ाने का कोई अधिकार नहीं है। . अल्पसेवा-भक्ति कागज़ब फल ऊपर के कथानक अनुसार वैद्य मर कर बन्दर बना। वहाँ भी 700 बंदरियों का स्वामी बना। एक दिन उस जंगल में एक सार्थवाह का सार्थ जा रहा था। साथ में साधु भगवन्त भी चल रहे थे। उनमें से एक मुनि भगवंत के पैर में बड़ा सा नुकीला कांटा चुभ गया। चलने में उन्हें भयंकर तकलीफ हो रही थी। उस मुनि ने अन्य भगवन्तों से आगे पधारने के लिए कहते हुए कहा- 'मुझसे अब चला नहीं जा रहा है। अतः मैं यही अनशन कर अपनी अन्तिम साधना कर लूंगा।' दूसरा उपाय नहीं मिलने से मुनिजनों को जाना पड़ा। जंगल में अकेले मुनि को देखकर सभी बंदरियाँ चिल्लाने लगी। तब बन्दर वहाँ आया। साधु भगवन्त को देखकर ऐसा लगा कि इनको पहले कभी देखा है। विचार-विचार में बन्दर को जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान से अपने पूर्व भव को जानने लगा। साथ ही पूर्व भव में वैद्य होने से उसे इस भव में भी जड़ी-बूटियों का ज्ञान हो गया। ज्ञान से जानकर तुरन्त जड़ी-बूटी लाकर मुनि भगवंत की औषधि कर उनको ठीक कर दिया। वहाँ से मर कर बन्दर का जीव देवगति में देव बना। इसके पश्चात् मरकर मनुष्य बनकर पापों का प्रक्षाल कर आत्मसाधना करके मोक्ष को प्राप्त 162 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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