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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा ऐसे-ऐसे अनेक बहुमूल्य रत्न पैदा हुए हैं, जिनके द्वारा सैकड़ो धर्म कार्य सम्पन्न होते हैं। अनेक जिनमन्दिर, दानशाला आदि श्रेष्ठ कार्य इन्हीं के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। - 'भामाशाह', जिन्हें आज भी लोग श्रद्धा से नमन करते हैं, वे भी इसी जिनशासन के रत्न थे। उन्होंने महाराणा प्रताप के समक्ष अपनी तिजोरी का ताला खोलकर रख दिया। उसी सम्पत्ति से मेवाड़ के सम्पूर्ण 360 जिनमंदिरों की रक्षा की गई। वर्तमान 'कुमारपाल वी.शा.' ने भी अनेक जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाकर उनकी सुरक्षा की। इसी चतुर्विद्य संघ में ऐसी सुश्राविकाएँ भी हैं, जो अपने सुपुत्रों को जिनशासन की धुरी को सम्भालने के लिए समर्पित कर देती हैं। उनमें 'माता मदालसा' का नाम स्मरण करते हैं तो उनके चरणों में शीश झुक जाता है। श्रीसंघपरवात्सल्यभाव कहते हैं, जिस श्रीसंघ को हम रत्नों की खान कहते हैं; उस संघ में अनेक गच्छ, पन्थ, समुदाय निकल गये हैं। किन्तु आज भी संघ महान् कहा जाता है। आज जैन संघ के पास शंत्रुजय, गिरनार, राणकपुर, आबू जी आदि अनेक तीर्थों की कीमती सम्पत्ति है और पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वी जी भी संघ के लिए बहुमूल्य सम्पत्ति कहे गए हैं। इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी श्रीसंघ पर है। यदि तीर्थ हो तो उनके जिर्णोद्धार की व साधु-साध्वी जी हो तो उनके आहार-पानी-औषधि आदि की चिंता श्रीसंघ ही करता है। इसलिए श्रीसंघ को महान् कहा गया है। इसीलिए इस संघ के प्रति वात्सल्यभाव, प्रेमभाव जगाएं। इसी संघ में हमारा जन्म हुआ है, ऐसा योग महान् पुण्योदय से प्राप्त होता है। अतः उनकी किसी भी समय उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। सेवासे आत्म-कमाई . पूर्व में द्वारिका नगरी के दो वैद्यों की बात चल रही थी, जिसमें से एक वैद्य ने . साधु भगवन्त की उपेक्षा की; किन्तु दूसरे वैद्य जी का स्वभाव सरल था। सर्वप्रथम उस वैद्य ने महात्मा का निरीक्षण किया, तत्पश्चात् औषधि दी। उनके आचार-नियम के अनुकूल औषधि बतलाकर उनके स्वास्थ्य को ठीक किया। प्रेम से उनकी भक्ति की। इस पंचम काल के भयंकर संसार में साधु-साध्वी जी की भक्ति ही आत्म-कमाई के लिए एक प्रकाश किरण है। यहाँ वे दोनों वैद्य जी भयंकर आरम्भ-समारम्भ की क्रिया करते थे। प्रथम वैद्य जी ने आरम्भ के साथ ही साधु की आशातना भी की, अतः मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। दूसरा वैद्य आरम्भ सहित जीवन जीता था, पर साधु की भक्ति की शी, अतः मर कर तिर्यंच गति में बन्दर का जीव बना। अत्यधिक आरम्भ के कारण संघ में उनकी निन्दा होती 161 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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