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परमात्मा बनने की कला
दुष्कृत गर्दा भी एक नवकारसी करने से दो सौ वर्ष के नरक के दुःख समाप्त हो जाते हैं, तो भी नवकारसी नहीं करता हूँ। सामायिक करने से, प्रभु दर्शन, गुरुदर्शन से भी अनन्त पुण्य का उपार्जन होता है, फिर भी इस लाभ से वंचित रहा। पशु-पक्षी भी यदि देव-गुरु के दर्शन की भावना से निकलें व उनका आयुष्य वहीं समाप्त हो जाए तो उनका मनुष्य भव या देव भव
निश्चित हो जाता है। इस भव में सब कुछ पाकर यदि कुछ नहीं किया, यदि यही छूट गया . तो भवान्तर में फिर मनुष्य गति से तिर्यंच या नरक गति की ही प्राप्ति होगी।
मनुष्य का अत्यधिक समय आर्तध्यान में व्यतीत होता है। चौबीस घण्टों में मन-वचन-काया तीनों ज्यादा कहाँ दौड़ते हैं? वह तो उसी आर्तध्यान में ही ज्यादा जाते हैं। काया से ज्यादा वाणी चंचल है, और वाणी से भी ज्यादा चंचल मन को कहा जाता है। वाणी को फिर भी वश में किया जा सकता है, पर मन का क्या करना? मुख से उच्चारण 'णमुत्थुणं सूत्र' का हो रहा है और मन बाजार में, घर में भटक रहा है। साथ ही हम अपने खजाने रूपी पुण्य से सद्गति की अपेक्षा रखते हैं। ।
सदैव आंखों से आँसू बहाते-बहाते परमात्मा से यही प्रार्थना करना है कि- 'मुझ सम खल को नहीं स्वामी, मुझ सम खल को नहीं।' त्रिकालयाद आते देव-गुरु
. अनन्त उपकारी परमात्मा के साथ हमने कितना सम्बन्ध रखा? प्रातःकाल मात्र 15 मिनट, आधा या एक घण्टा दर्शन पूजन के लिए निकाल लिए, बाकी का समय सम्पत्ति अर्जन व भोग में बिता देते हैं।
- यदि किसी मंदिर के निर्माण में धन अर्पण करने से लाखों रुपये प्राप्त हुए, किसी कत्लखाने में जा रहे पशुओं को अभयदान देने से स्वास्थ्य स्वस्थ हो गया; तो यही विचार करते हैं कि मैंने अपनी बुद्धि के बल से धन व आरोग्य को प्राप्त किया है, परमात्म-कृपा से व उनके प्रभाव से ऐसा नहीं हुआ; जबकि उनको ये मार्ग बताने वाले भी कौन हैं? अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले प्रथम हमारे परमात्मा ही हैं। इन्हीं के प्रभाव से सब कुछ प्राप्त होता है। इन्हीं के समक्ष हमें अपने पापों का मुक्त हृदय से स्वीकार कर उनकी निन्दा गर्दा करनी है। नहीं करने योग्य प्रभु मैने खूब पाप किए। मुझे मेरे पापों की क्षमा प्रदान करें। ऐसा बार-बार दोहराना चाहिए। अन्यकीसाक्षीमें पापों की निन्दा
जनसभा के समक्ष किये गये पापों का प्रायश्चित जनसमुदाय के सामने ही होना
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