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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग चाहिए। वहीं क्षमा याचना करनी पड़ती है। एकांत में किए पापों की आलोचना गीतार्थ गुरु (ज्ञान, दीक्षा पर्याय व उम्र में बड़े) के पास करनी चाहिए। सभी छोटे-बड़े पापों को प्रकट कर उनसे आलोचना लेना व उनसे लिये गये प्रायश्चित को सम्यक् प्रकार से सम्पूर्ण करना। जो इस प्रकार प्रकट करता है, वही महान् बनता है, आदर का पात्र बनता है। क्योंकि धर्म के अनेक कार्य कर लेना सरल है, किन्तु अपने पापों को दूसरों के समक्ष प्रकट करना बहुत कठिन है। यहाँ तक कहा गया है कि यदि चक्रवर्ती को कहा जाय कि अपने सम्पूर्ण पापों को गुरु के समक्ष कहो अथवा अपना छः खण्ड का राज्य गुरु को समर्पित कर दो, तो दोनों में से वह छ: खण्ड राज्य समर्पित कर देगा, पर पापों को नहीं कह पायेगा । इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा के वचन को जो स्वीकार लेता है, उसके लिए पापों का स्वीकार कठिन नहीं होता है। प्रायश्चित करने के लिए भी योग्य गुरु होने अनिवार्य हैं। योग्य गुरु नहीं मिले तो 700 योजन (1 योजन = 12 किमी.) तक खोज करें। फिर भी न मिले तो 12 वर्ष तक भी उनकी खोज करके ही उनसे प्रायश्चित लें। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। श्रेष्ठ, दान, शील, तप की धर्म आराधना करता हो, परन्तु अन्तर- हृदय में छोटा भी पाप, रूपी शल्य पड़ा हो तो वह अपने आपको घृणित अनुभव करता है । शल्य रहित आत्मा की शक्ति बढ़ती जाती है, वहीं शल्य से युक्त आत्मा की शक्ति घटती जाती है । पाप रूपी शल्यों की गर्हा करने से हमेशा के लिए कर्मक्षय कर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। वहीं भीतर शल्य भरे पड़े हों तो आराधना की प्रगति रूक जाती है। शल्योद्धार से हो आत्मोद्धार एक छोटा सा शल्य किस प्रकार हमारी आत्मा की प्रगति में रूकावट पैदा कर सकता है, इसे हम एक दृष्टान्त से समझेंगे। शुभ लक्षण युक्त अश्व के कारण राजा अपने राज्य में तथा दूसरे राज्य में भी प्रसिद्धि को प्राप्त करता था। दूसरे राज्य के राजा तो उस अश्व के कारण अपना मस्तक भी नहीं उठा सकते थे। वह अश्व लक्षण युक्त होने मात्र से अश्वशाला मे शोभित होता था । युद्ध आदि में भी इसको जाने का कोई काम नहीं था। एक तिर्यंच प्राणी का भी कितना पुण्य प्रबल, उसी का प्रभाव । हमें यहाँ देखना है कि तीर्थंकर देव का अचिन्त्य प्रभाव कैसा होता है? इनके प्रभाव से क्या नहीं हो सकता है। ऐसे प्रभाविक देवाधिदेव के मिलने के पश्चात् भी यदि Jain Education International 146 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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