SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा पर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि यह जीव अनादिकाल से धन की मूर्छा से ग्रसित रहा है। दुष्कृत्यगहसिसमकित दुष्कृत्य को दुष्कृत्य के रूप में स्वीकार करना, उसकी सम्यग् प्रकार से गर्दा करना, यही बड़ी से बड़ी आराधना है। नरक के जीव आज भी भयंकर वेदना में समकित का उपार्जन करते हैं; और हमें अरिहंत, जिनप्रतिमा, साधु भगवन्त के दर्शन, वन्दन, भक्ति एवं सिद्धगिरि का सुन्दर योग मिला, फिर भी समकित नहीं मिलता है। नारकी के जीवों को इनमें से कुछ नहीं मिला, फिर भी समकित कैसे प्राप्त हुआ? तो यहां कहते हैं-वहाँ के नारकी जीव अपने दुष्कृतों की गर्दा करके समकित प्राप्त करते हैं, विभंग ज्ञान से पूर्व भव देखकर कि पूर्वभव में मैंने अनेक पाप कर्म किए थे, उन्ही भयंकर पापोदय के कारण मुझे नारक में उत्पन्न होना पड़ा। उन दुःखों, वेदनाओं को सहन करते समय अपने ही पाप दुष्कृत्य याद आते हैं और उनकी गर्दा करते हैं। बारम्बार पापों की गर्दा की जाती है तो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म विशुद्ध होता हुआ समकित मोहनीय में बदल जाता है। इस प्रकार दुष्कृत्य गर्दा से नारकी सम्यक्त्वी बनते हैं। कर्मों का अंत कब? तीव्र राग के कारण जीव को पाप अभी तक पाप रूप नहीं लगते हैं, जबकि पापों को पाप रूप मानना ही समकित है। परमात्मा का हम पर अनन्त उपकार है। जब उन्होंने हमारा हाथ पकड़ा तब हमने उनसे हाथ छुड़ा लिए। उनकी अमृतमय वाणी को समझ नहीं पाए और संसार में ही भटकते रहे। इससे चारों गति में भटकना पड़ा। जन्म-मरण करना पड़ रहा है। उस समय उनकी उपेक्षा की, अब किस प्रकार उनके पास जाएं? अनन्तकाल में अनन्तानन्त भवों में अनन्त पाप किए। अब क्या पैर उठेंगे? आँखों के समक्ष अधंकार छा जाए, ऐसी मेरी दुष्करणा है। उन सभी दुष्कृत्यों की मैं गर्दा करता हूँ। अपने दुष्कृत्यों का मैं अपने मुख से भी उच्चारण नहीं कर सकता। तीव्र आर्तध्यान -रौद्रध्यान किये। इस भव में आकर हर प्रकार से पापों को निकालना था, पर मेरी दिशा ही अलग थी। मैंने पाप घटाने के बदले पापों को बढ़ाने का कार्य किया। कहते हैं, जहाँ अरिहंत भगवन्तों का शरणा मिल जाता है, वहाँ अपना पूर्व का सम्पूर्ण लेखा-जोखा चुका कर कर्जा समाप्त कर सकते हैं। तिर्यंच के भव में कातिल कब कत्लखाने में ले जाए और मस्तक धड़ से अलग कर दे, पता ही नहीं चलता। नरक में परमाधामी जीवों ने खूब सताया, पीड़ा देने में किसी भी प्रकार से कमी नहीं छोड़ी। इतना सब कुछ जानने के बाद 144 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy