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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत अत्यधिक मूर्च्छा जगी, लोभ जगा, ये सभी अज्ञानता हैं, मूढ़ता है । जितना अधिक परिग्रह होगा, उतने ही ज्यादा पापों की गठरी बढ़ेगी। हम दुनिया के सभी 'अर्थ' 'अनर्थ' को करने वाले हैं, जबकि 'काम' को विष की उपमा दी गई है। जो आत्मा के गुणों को तुरन्त समाप्त कर देता है। ये सभी पाप बड़ी प्रसन्नता से किए। इन पापों की निन्दा करनी है। अभी हम जो धर्माराधना कर रहे हैं, वे सभी गतानुगतिक क्रियायें हैं। जैन धर्म में उत्पन्न हुए, इसलिए थोड़ा बहुत धर्म हम कर लेते हैं । किन्तु अर्थ और काम के प्रति रही हुई मूर्च्छा कम करने का कितना प्रयास किया? धर्म करने वाला यह कहता है कि धर्म के प्रभाव से हमारा सभी कुछ अच्छा चल रहा है। परन्तु अर्थ और काम का सुख प्राप्त हो, ऐसी भावना रखना भी उचित नहीं है। विशुद्ध भाव नहीं है । यही मूर्च्छा भाव है । इसे घटाना व हटाना होगा। तभी कहते हैं जीव का उद्धार कब होगा ? मूल बात यह है कि अभी तक दुष्कृत्य हमें दुष्कृत्य लग ही नहीं रहे हैं। हिंसा करना पाप है, ऐसा लगता है परन्तु परिग्रह संग्रह करना क्या पाप लगता है? पैर के नीचे मेंढक आ जाए तो तुरन्त गुरु भगवन्त के पास प्रायश्चित लेने के लिए जाते हैं। परन्तु पैसों के प्रति अतिराग हो गया अथवा पैसा ज्यादा आ गया, उसका प्रायश्चित् दीजिए ऐसा कभी गुरुजनों से कहा? गतवर्ष मैंने खूब पैसे कमाए, उनका प्रायश्चित लेना है; कभी ऐसा विचार आया क्या ? साधु को अर्थ और काम से सदैव दूर रहने के लिए कहा गया है। गुरुजन हमें दो बातें बताते हैं, स्त्री और पैसों की पंचायत में नहीं पड़ना । धर्म के लिए भी पैसों की बातें श्रावकों से नहीं करना। स्त्री से सदैव दूर रहना, बातचीत नहीं करना । जो इन बातों का : ध्यान रखेंगे, उनकी साधुता मजबूत रहेगी। परिग्रह भार लगना सामान्यतया आप देखते हैं कि पैसे वाले व्याख्यान में आगे आकर बैठते हैं। सामान्य जनता पीछे बैठती है, उस समय पैसे वालों को क्या ऐसा लगता है कि मैं करोड़ों रुपये का मालिक हूँ, अतः इतने अधिक परिग्रह के भार से भारी बना हूँ, मुझे पीछे बैठना चाहिए। सच्चा श्रावक अपनी सम्पत्ति को देखकर अपनी आत्मा को धिक्कारता है, हे आत्मन्! इन रुपये-आभूषणों का मुझे क्या करना है? किसके लिए हैं ये सब ? इनकी मूर्च्छा उतार दूँ तो कितने साधर्मिकों की भक्ति का लाभ प्राप्त कर सकता हूँ। इन धन-सम्पत्ति को सात क्षेत्र में लगाकर, भक्ति का लाभ लेकर पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्जन हो सकता है तो क्यों न वह लाभ उठा लूँ। Jain Education International 143 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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