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परमात्मा बनने की कला
दुष्कृत ग किन्तु मुझे आपसे एक ही आशा है, प्रभु! आपकी कृपा दृष्टि रूपी किरण मुझ पर पड़ेगी। आप मुझ पर करुणा का अमृत वर्षाओ, मेरा कल्याण करो। हम सभी जीवों ने खूब पाप किए, इसलिए पापी हैं। ऐसे-ऐसे कुसंस्कार डाले हैं, उससे आप ही बचा सकते हैं। सातवीं नरक में ले जाएं, ऐसे कर्म भी किए हैं। उन कर्मों से छुड़ाने वाले भी आप ही हैं। इतना जानते हुए भी आप ही रक्षक हैं, तारणहार हैं।
पापों की निंदा करते समय अकर्त्तव्यभाव (अकर्ता) होना चाहिए। नहीं करने लायक पाप मैने किए। इनको चतुर्भंगी से जाना जा सकता है
1. दूसरों का बड़ा पाप भी छोटा लगना चाहिए।
2. अपना छोटा पाप भी बड़ा लगना चाहिए।
3. अपना बड़ा गुण भी छोटा लगना चाहिए।
4. दूसरों का छोटा गुण भी बड़ा लगना चाहिए।
इस प्रकार के विचारों से भी आत्मा संस्कारित बनती है। भव्यत्वगुण ज्यादा परिपाक होता है।
परमात्मा के गुणों को याद करते हुए अपने दुष्कृत्य की ज्यादा से ज्यादा गह करनी है। हे प्रभु! मैं इन भोग सुखों के पीछे, काम और अर्थ के पीछे पागल बना फिरता हूँ। रात-दिन उन्हें ही पाने की लालसा में दौड़ लगा रहा हूँ। आपने जिन साधनों का त्याग
किया वर्षीदान देकर दीक्षा अंगीकार की; शरीर पर रहे वस्त्र, आभूषण, मुकुट सब कुछ
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त्याग कर दिया। आपने परिवार में रहे माता-पिता, पुत्र, पत्नी, स्वजन- परिजन का त्याग किया। सभी के प्रति मोह माया छोड़ आत्मा को साधना में लगा दिया। फिर मुड़कर भी नहीं देखा, न उन सभी को याद किया। हे प्रभु! आपकी नित्य पूजा करने वाले हम आपके ही द्वारा त्यागे हुए भोगों की कामना करते हैं। उन्हीं के पीछे उन्हें पाने के लिए पागल बने हुए हैं। परमात्मा ने उन्हें शत्रु मान कर त्यागा और हम उसे मित्र मानकर अपने घर में बसाते हैं। ये मेरी कैसी मूर्खता है!
जीवात्मा का उद्धार
जिस प्रकार पैर से धूल का त्याग किया जाता है वैसे ही परमात्मा ने संसार को रज की तरह त्याग दिया। उसी संसार में हम कितने उलझे हुए हैं! कभी पच्चीस लाख रुपये कमाने के पश्चात् एकांत में जाकर उन पापों को याद कर रोए नहीं! ये खोखा, पेटी साँप की पेटी की तरह अन्त में हमें ही डंक मारने वाले हैं, ऐसा लगा नहीं; बल्कि उन पर
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