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________________ परमात्मा बनने की कला - दुष्कृत गह मुनि को अभी और कितने भव करने होंगे? इस प्रकार विराधना करने वाले मुनियों को प्रभु ने सावधान किया कि अईमुत्ता मुनि तो चरम-शरीरी हैं, यहाँ से मोक्ष जाएँगे। इनकी कीमत कम मत गिनो। तब वहाँ मुनिजन स्वदोष की गर्हा-दुर्गच्छा करते हैं। कैसा धन्य शासन है। ___ स्वछंद वृत्ति का त्याग व नम्रता का स्वीकार 'कुमारपाल' के जीव ने पूर्वभव में ही किया था। राजकुमार होते हुए भी दुष्ट व्यसन के कारण देश से निकाल दिया गया था, जिससे जंगल में लुटेरा बना। अभिमान और स्वच्छंदता के घोर कृत्य करता था। परन्तु मुनि के सम्पर्क से दुष्कृत्य-गर्दा में चढ़ा। नम्र बन गया। स्वच्छंदता भूलकर गुरुभक्त और अर्हद्भक्त बन गया। वही जीव मृत्यु प्राप्त कर कुमारपाल राजा बनाा परमार्हत गुरुभक्त और अर्हदभक्त बना। 'मिच्छामि दुक्क्डम्' के आंतरिक भावों के साथ गर्दा करते हुए ऐसी भावना भावित करें कि इस प्रकार मेरी सम्यक् विधि सहित और भाव से दुष्कृत्य गर्दा हो। मात्र शाब्दिक ही नहीं, हार्दिक गर्दा ऐसी हो कि जिससे उन दुष्कृत्यों की लेशमात्र भी सुन्दरता या कर्त्तव्यता अब मुझे नहीं भाषित हो। साथ ही जैसे एक बार रागद्वेष की गांठ भेदन करने के बाद फिर से कर्म की उत्कृष्ट काल-स्थिति का बन्ध नहीं होता हैं, उसी प्रकार हृदय में फिर से उन दुष्कृत्यों के बन्ध अब नहीं रहें, ऐसा उनके अकरण का नियम हो। 1. पूर्व के दुष्कृत्य की गर्दा और 2. भविष्य के दुष्कृत्य का अकरण नियम, ये दोनों; अथवा ___1. चतुःशरणगमन और 2. दुष्कृतगर्दा, ये दोनों मुझे बहुत ही रूचिकर लगते हैं। इसलिए मैं त्रिलोकनाथ श्री अरिहंत भगवान और कल्याण मित्र गुरुदेवों की मुझ पर कृपा और हितशिक्षा की इच्छा प्रतिदिन करता हूँ। इनकी कृपा और हितशिक्षा, चार शरण स्वीकार तथा दुष्कृत्य गर्दा का, ऊपर कहे अनुसार गुणों का विस्तार करना ही साधना में बीजभूत है। यहाँ गुरु साक्षात् उपकारी होने पर भी पहले देव की, फिर गुरु की हितशिक्षा की कामना क्यों की गई? इसका कारण यही है कि तत्त्व को अंगीकार करने वाली आत्मा ही मूल उपदेशक है, इसलिए अधिक गुणी परमात्मा की ओर पहले प्रवर्तमान होना, यह उचित है। दुष्कृत गर्दा के बाद ही अनुशासित की क्यों कामना की? इसके लिए कहा गया कि तत्त्वानुसारी मनुष्य को अधिक गुणों के लिए, उनकी तरफ झुकने व मोड़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ये स्वीकार करने पर ही तत्त्वों को स्वीकार किया, ऐसा सच्चा गिना जाएगा। यह एक कर्त्तव्य निश्चय है कि मैं अरिहंत भगवान् की और गुरु की आज्ञा की 170 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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