SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा तीसरे एवं चौथे 'मिच्छामि दुक्कडम्' में दूसरी बात यह आती है कि इससे नम्रता कोमलता आए और निरंकुश वृत्ति पर रोक लगाएँ। कठोर मिट्टी पर आकार नहीं बैठता है, वैसे ही कठोर हृदय में गुणों का आकार नहीं बनता है। कोमलता में ही आकार बैठता है। स्वयं को और दोष दुष्कृत्य को महत्व देना कठिन है। इसलिए यदि कठिनता को निकाल दिया जाय और गुरु के समक्ष दुष्कृत्य की सच्ची गर्दा की जाये तो इसमें अहम्त्व का भाव दबेगा। मैं बड़ा, मैं अच्छा, गुरु के आगे अपनी तुच्छता क्यों दिखाऊँ? ऐसा अहं भाव ऊँचे गुणस्थान में चढ़ने नहीं देता है, इसलिए नम्रता भी आवश्यक है। _ पाँचवें भाव में दोष या पापों को खुशी-खुशी सेवन करने की अनादि काल की गलत आदत है। इन्हें निकालने के लिए खोजना होगा कि अन्तर की कौन सी दुष्ट वृत्ति पर इन दोषों का सेवन किए जा रहे हैं? चक्षुशीलता या स्पर्श कुशीलता में निर्भयता हो और इनमें लोभ रहे, यह हृदय की दुष्ट वृत्ति है। इसी मूल बीज के ऊपर परस्त्री का निरीक्षण या स्पर्श का पाप किया जाता है। इसलिए इन पापों को प्रेरित करने वाले बीजों को ही उखाड़ कर फेंक देना चाहिए। ऐसे प्रत्येक दुष्कृत्य और पापों को निकालने के लिए इनकी मूलभूत दुष्ट वृत्ति को उखाड़कर फेंकना है। इनके निकल जाने से इनके ऊपर दुष्कृत्यों का उत्पन्न होने का बंध हो जाएगा। - दृष्टान्त - क्रोध कषाय का दुष्ट भाव ही अपशब्द, कठोर-भाषा, प्रहार करना आदि पाप करवाता है? यदि मूल में से जो क्रोध कषाय को ही शान्त कर दिया जाय तो अपशब्द, कठोर-भाषा इत्यादि बोलने के लिए तत्पर नहीं बनेगा। यही सहजता है। इस प्रकार दुष्ट वृत्ति और सभी कषायों का उपषम करने से ही पाप की सीमा उलांघी जा सकती है। जैसे रोग की चिकित्सा करके उसके मूलभूत कारण को हटा दिया जाता है, वैसे ही पाप-दुष्कृत्यों के निवारण में भी मूलभूत कारणभूत कुवृत्ति को खोज कर निकाल कर हटाने का प्रयत्न करना चाहिए, तो ही सच्ची उन्नति होती रहेगी। आत्मा में से दुष्ट भावों के हटने से ऊँचे गुणस्थानक चढ़े जाते हैं। यहाँ दोष को तिरस्कार और स्वात्मा की दुर्गच्छा करने के विषय में 'अईमुत्ता मुनि' का सुन्दर प्रसंग घटता है, जिसका पूर्व में विस्तार से वर्णन किया गया है। बालचेष्टावत् तालाब में पात्र को तिराया। मुनियों ने उनको सावधान किया, परन्तु उनको ऐसा दर्द हुआ कि अरे! प्यारे प्रभु ने तो मुझे पाप से बचाने के लिए चारित्र देने का महान् उपकार किया, और मैं दुष्ट फिर से पाप कर रहा हूँ? कैसा अधम हूँ? परन्तु अन्य मुनियों की विचारणा कैसी थी कि इन असंख्य जीवों की विराधना का दुष्ट पाप? इस अईमुत्ता Jain Education International 169 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy