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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा इच्छा करता हूँ। ___यहाँ यह ध्यान में रखना है कि इनकी हितशिक्षा और समागम, ये दोनों प्रणिधान केवल 'कोरी-प्रार्थना' करने को ही सूचित नहीं करते हैं, बल्कि 'मैं इन दोनों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होऊँ', ऐसा हृदय का दृढ़ निर्णय करने को भी सूचित करते हैं। इसलिए प्रार्थना के साथ-साथ ऐसा निर्णय भी करना चाहिए। अरिहंत आदि का समागम भी मात्र अपनी शक्ति से ही नहीं मिलने वाला बल्कि देवाधिदेव और गुरु की कृपा से मिलता है। इसलिए उनके समान उनको प्राप्त करने की पीडायुक्त उत्तम प्रार्थना हो। __हे प्रभु! आपका संयोग मुझे हमेशा मिले; अहो! परम पुरूष द्वारा चली आ रही उत्तम वस्तु की प्रार्थना मात्र भी जगत् में कैसी अलभ्य, अनमोल और अनन्त उपकारक वस्तु है। उनके ऊपर मुझे अत्यधिक सद्भाव एवं सम्मान हो, जिससे जीवन में हृदय के अत्यन्त उल्लास के साथ यह प्रार्थना बारम्बार करता रहूँ।' इस प्रकार प्रार्थना बारम्बार करने से मुझे मोक्ष का बीज प्राप्त हो, यह भी प्रार्थना का स्वरूप है। प्रार्थना आत्मा को नम्र बनाती है। जिनके आगे प्रार्थना की जाती है, उनकी ओर विशेष निकटता व नम्रता लाती है। शुभ अध्यवसाय को जागृत करके दीर्घकाल तक जीवन्त बनाकर रखती है तथा जीव को सुसस्कार से समृद्ध करती है। इससे मिथ्यात्व आदि कर्म नष्ट होते हैं, और मोक्ष बीज प्राप्त होते हैं। ___ मोक्षबीज स्वर्ण कलश की तरह अनुबन्ध वाला 'शुभकर्म' है। अनुबन्ध मतलब परम्परा। जैसे सोने का कलश तोड़े जाने के बाद भी सोना रहता है, वैसे ही प्रार्थना से प्राप्त हुआ शुभ पुण्य कर्म विपाक भले ही भोग लिया जाता है, परन्तु ये शुभानुवन्धी कर्म होने से नवीन शुभ कर्म उपस्थित हो जाते हैं। शुभकर्मों की परम्परा आरंभ हो जाती है। देव-गुरु के संयोग से हृदय में ऐसी उत्कण्ठा होती है कि मेरी दुष्कृत की गर्दा जीवन्त रहे। उस पर मुझे बहुमान-आदर प्राप्त हो। मेरी यह प्रार्थना उत्कृष्ट बनी रहे। श्री उत्तराध्ययन सूत्र की टीका का एक सुन्दर प्रसंग प्रस्तुत है एक चित्रकार की पुत्री के बुद्धिबल और विवेकशक्ति को देखकर राजा ने उसे अपनी पटरानी बनाया। दूसरी अन्य रानियों को उस पटरानी से ईर्ष्या के भाव थे। इसी कारण अन्य रानियाँ ईर्ष्यावश उसके विरूद्ध राजा के कान भरने लगीं। एक दिन वे रानियाँ कहने लगीं- 'देखिए! आपकी पटरानी दरवाजा बन्द करके अन्दर जादू टोना करती है।' गुप्त रूप से, दरवाजे के छिद्र से राजा ने देखा कि मेरी प्रिय रानी तो चित्रकार की पुत्री के Jain Education International 171 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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