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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण ने सिखा कर भव्य जीवों को इन जीवों की रक्षा करने वाला बनाया। इतने सूक्ष्म जीवों के कल्याण व हित की बात दूसरे किसी ने नहीं कही। यदि दूसरे किसी ने नहीं कही है तो ऐसे दूसरों की शरण हृदय में कैसे रख सकता है कोई। हृदय में रखने की जरूरत ही नहीं है।. इसलिए 'अरिहंता शरणं' अर्थात् अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि इत्यादि अष्ट-प्रतिहार्य रूपी पूजा के योग्य ऐसे अर्हत् भगवन्त मेरे जावज्जीव शरण हैं, आश्रयभूत हैं, इनका ही मुझे आधार है। जगत् के कहे हुए, कल्पित नाम मात्र के शरण पर मुझे श्रद्धा नहीं है। ऐसे नाम . के शरणभूत सेठ, मित्रों, कुटुम्ब, धन, सत्ता इत्यादि मुझे किसी भी अवसर में सहाय न भी करे तो भी मैं दुःखी नहीं होऊँगा। चिन्ता नहीं करूँगा; क्योंकि मैं जानता हूँ कि इनमें से कोई भी मेरा सच्चा शरण नहीं है। मैंने तो एकमात्र देवाधिदेव का सच्चा अनन्य शरण रूप धारण कर लिया है। अब मुझे किसी प्रकार का भय या आपत्ति नहीं है। पूर्व के तीव्र कर्म के उदय से कभी प्रतिकूलता आ भी जाए तो नाथ की शरण के प्रताप से वह कर्म अन्त को प्राप्त करने वाला ही बनेगा। इसमें से अब नये कर्मों का अंकुर नहीं फूटेगा, कर्म की धारा रूक जाएगी और दुःखों का सदा के लिए अभाव हो जाएगा। योगक्षेमकारक अरिहंत परमात्मा के इन्हीं विशेषणों को हम अन्य रूप से समझने का प्रयास करते हैं। अरिहंत परमात्मा हमारे नाथ हैं, रक्षक हैं। जो योगक्षेम करते हैं, वे ही हमारे नाथ . होते हैं। परमात्मा की कृपा से ही मोक्षमार्ग में नये-नये योग की प्राप्ति होती है और उन प्राप्त हुए योगों की रक्षा भी परमात्मा की कृपा से ही होती है। दुर्गति में गिरते हुए जीवों की रक्षा भी अरिहंत परमात्मा करते हैं। बाह्य और आभ्यंतर शत्रुओं से जीवों की सुरक्षा एवं तीनों लोकों के जीवों को बचाने वाले भी अरिहंत भगवान् हैं, क्योंकि परमात्मा अनुत्तर पुण्य के स्वामी होते हैं। दुनियाँ में ऐसे विशिष्ट पुण्य किसी के नहीं हैं, वैसे विशिष्ट पुण्य को वे धारण करने वाले हैं। इन्द्रदेव, सुर, असुर आदि देवताओं को सेवा के लिए बुलाना नहीं पड़ता है। वे स्वयं दौड़े-दौड़े आते हैं। परमात्मा की सेवा में प्रथम हम पहुँचेंगे, इस प्रकार कहते हुए उनके विमान आगे बढ़ते जाते हैं। जब परमात्मा का जन्म होता है, तब चौदह राजलोक सम्पूर्ण क्षणभर के लिए प्रकाशित हो जाता है। सम्पूर्ण आकाश देवताओं से भर जाता है। असंख्य देवता मेरू पर्वत पर स्वयं पहुँच जाते इन्द्र महाराज जहाँ परमात्मा की माता शयन कर रही हैं, वहाँ आकर प्रथम प्रभु को वन्दन, पश्चात् माता को भी वन्दन करते हैं। फिर कहते हैं- 'हे जगत् दीपिका! सम्पूर्ण Jain Education International 102 For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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