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परमात्मा बनने की कला
इच्छित जैसा है ही क्या ? जीवन में मेरे तो ये पुण्यवन्त अरिहंत ही नाथ हों, यही श्रद्धा चाहिए। -
राग-द्वेष मोह के विजेता
फिर से राग-द्वेष-मोह अर्थात् इष्ट के प्रति आसक्ति, अनिष्ट के प्रति अरुचि और अज्ञान । मिथ्या ज्ञान जिनका एकदम नष्ट हो गया है, ऐसे प्रभु की मुझे शरण हो । मेरे प्रभु भक्तों पर लेशमात्र भी न राग वाले, न शत्रु पर द्वेष वाले हैं। वीर प्रभु ने महाभक्त गौतम पर न राग किया और तेजोलेश्या छोड़ने वाले गोशाले पर न द्वेष किया। उसी प्रकार प्रभु के कोई भी कथन मूढ़ता - अज्ञानता से भरे नहीं हैं। क्योंकि वे वीतराग, सर्वज्ञ हैं। ऐसे दूसरे कोई देव नहीं, मानव नहीं, वे तो मात्र प्रभु ही हैं। ऐसे नाथ के शरण में जाने से सम्यक् ज्ञान वैराग्यादि की जरूर प्राप्ति होती है। इसलिए इनकी शरण स्वीकार करनी चाहिए। ऐसे प्रभु 'अचिन्त्य चिन्तामणि' स्वरूप हैं।
अचिन्त्य चिन्तामणिरत्न
चार शरण
अचिन्त्य क्यों कहा? इसलिए कि चिन्तामणि तो आपके द्वारा सोचा गया उसके अनुसार फल को प्रदान करता है। वह भी लौकिक अर्थात् इस लोक में उपयोग आए जितना ही फल देता है, जबकि परमात्मा तो धारण किये गये फल से भी उत्कृष्ट ऐसे अकल्पनीय, अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्ति के फलों को देने वाले हैं। ऐसे अचिन्त्य चिन्तामणि रूप प्रभु को प्राप्त करने के पश्चात् अब मेरे पास और क्या कमी है, जो मैं लौकिक किसी आपत्ति के प्रसंग में कुछ कम मानूं अथवा दुःखी होऊँ ?
भवसागर में जहाज रुप
भगवान् संसार से पार उतारने वाले होने से भवसागर में जहाज के समान हैं। इनकी शरण में रहते हुए मैं जरूर भवसागर को तिरने के लिए प्रयास करूँगा, ऐसी मेरी इच्छा है। भव अर्थात् चतुर्गति रूप संसार। उसी तरह विषय, कषाय, अनादि की संज्ञा आदि भी भव हैं। इन सभी से जीव को छुड़ाते हैं अरिहन्त प्रभु ।
एकमात्र शरण
भगवान् अरिहंत देव ही एकांत रूप से शरण स्वीकारने योग्य हैं। क्योंकि ये भेदभाव बिना स्वयं के अपराधी अथवा निरपराधी सभी आश्रितों का हित करने वाले हैं। उसमें भी आश्रित के सम्पूर्ण हित करने वाले हैं। उनके जैसे सर्व-कल्याण करके महान् उपकार दूसरा कौन कर सकता है? कोई नहीं कर सकता है । जगत् के पृथ्वीकाय, अप्काय आदि एकेन्द्रिय जीव तक सभी जीवों की पहचान और दया करने की बात तीर्थंकर भगवान्
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