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________________ परमात्मा बनने की कला प्रायश्चित् से आत्म शुद्धि हमें अपने किए हुए पापों के प्रायश्चित् द्वारा आत्मा को शुद्ध कर लेना चाहिए। हृदय के शल्यों का निराकरण कर लेना चाहिए। यदि आत्मा की विशुद्धि जीव कर लेता है तो तूफानी समुद्र में भी जिनशासन की नैया निश्चित रूप से उसे पार उतार देगी। यह पंचम आरा तूफानी समुद्र की तरह है। जिनशासन जहाज समान है। पूर्ण विश्वास जब होगा तब ही भगवान हमें बचा सकते हैं। जिनशासन के अतिरिक्त हमें और कोई नहीं तारेगा। तन-मन-धन समर्पित कर देना होगा। प्रमाद का त्याग करना होगा। इस जीवन रूपी गाड़ी को अरिहंत की आज्ञा रूपी पटरी पर चलाना होगा। अन्दर के शल्यों का निराकरण करके आगे बढ़ना होगा। हमें इस भव व परभव के दुष्कृत्यों की गर्हा करनी है । आज तक हमने क्या किया ? मात्र पाप किये। दुःख भोगे । अर्थ और काम के पीछे दौड़ते ही रहे। जब तक राज्य नहीं मिला, तब तक राज्य की प्राप्ति हेतु कुमारपाल ने जंगल में क्या किया? जंगल में भटकते रहे। जंगल में घूमते हुए जब एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, पास के बिल से एक चूहा बाहर आता और एक स्वर्ण मोहर रखता, फिर उस पर नृत्य करता । इस तरह बार-बार चूहा आता, स्वर्ण रखकर उस पर नाचने लगता। दुष्कृत ग ज्ञानी भगवंत इसे ही अनादिकाल के संस्कार कहते हैं। जीव अर्थ, काम के पीछे सदा से अतृप्त है। वह कभी तृप्त नहीं हो सकता है। तृष्णा का अंत नहीं राज कार्यकर्त्ता के पास करोड़ों रुपये होने पर भी तृप्ति नहीं है। अभी और राज्य सुख चाहिए। उसके पश्चात् प्रधानमंत्री बनना है । शायद कभी प्रधानमंत्री का पद भी मिल जाए तो क्या तृप्ति हो जाएगी? नहीं, चक्रवर्ती का सुख चाहिए। यदि छः खण्ड का साम्राज्य मिल जाये तो क्या शान्ति होगी ? नहीं, देवलोक का सुख चाहिए। देवों को इन्द्र बनना है । इन्द्र बनने के बाद भी भय बना रहता है । वहाँ भी सुख नहीं, क्योंकि आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु होगी। उसका भय। अर्थात् इच्छाओं के रहते व्यक्ति कभी सुखी नहीं बन सकता है। इस मानव जीवन को प्राप्त कर सुन्दर आराधना करनी चाहिए थी, आत्मोन्नति हेतु सुन्दर चारित्र का पालन करना चाहिए था; किन्तु ऐसे सुन्दर संयोग के प्राप्त होने पर भी मानव अर्थ और काम के पीछे अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर डालता है। जिस प्रकार श्रेणिक महाराजा के राज्य में दिन में चित्रशाला का प्रवेशद्वार बनाया जाता और रात्रि होने Jain Education International 158 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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