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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण बाजार से होकर अमर को घसीटकर ले जाया गया। अमर के रूदन से नगरजनों की आँखों में से आँसुओं की धाराएं बहने लगीं और सबने मन ही मन राजा और ब्राह्मण-ब्राह्मणी को धिक्कारा। अमर बार-बार बोलता रहा। 'जो मुझे बचायेगा, उसका मैं आजीवन दास बन जाऊँगा। मुझे बचाओ-बचाओ।' अमर कुमार को राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। 'राजन्! प्रजापालक होकर मेरे जैसे निर्दोष बालक की हत्या करने के लिए आप तैयार हुए हैं, यदि रक्षक ही भक्षक बनेगा तो यह धरती पाप से भर जायेगी।' यह कहते ही अमर राजा के पैरों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला, 'मेरे नाथ! मुझे बचाओ। मैं हमेशा आपकी सेवा करूँगा। मुझे मत मारो, मुझे मत मारो।' 'वत्स! मैं क्या करूँ? तेरे माता-पिता ने ही तुझे तेरे तोल के बराबर सोने की मोहरों के बदले बेचा है।' राजा सिंहासन पर से खड़ा होकर बोला 'हे सेवकों, अब एक घटिका की ही देर है। अतः सभी तैयारी करवाओ और इस बालक को स्नान आदि करवाकर, आभूषण पहनाकर सजाओ।' . 'जी राजन्! आपको घणी खम्मा। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।' राजसेवक बलपूर्वक अमर को ले गए। स्नान करवाकर सुन्दर वस्त्र एवं आभूषणों से सजाकर तैयार किया और अग्निकुण्ड के सामने लाकर खड़ा किया। सामने दिखती निश्चित मौत से घबराया हुआ अमर बचने की किसी आशा से चारों ओर देख रहा है। सामने जलती हुई अग्निकुण्ड की ज्वालाएँ दिखाई दे रही हैं। अग्नि कण्ड के चारों ओर बैठे हुए ज्योतिषी मंत्रोच्चार करके अग्नि में 'ओम स्वाहा' बोलते हए कुछ डाल रहे थे। चारों ओर नगर के लोगों के झुण्ड दिखाई दे रहे थे। पूर्व दिशा में राजा सजधज कर सिंहासन पर बैठा था। पास ही मंत्रीगण, नगरजन तथा श्रीमन्त दिखाई दे रहे थे। तभी यकायक एक ज्योतिषी बोला, 'अब समय निकट है।' यह सुनते ही अमर अत्यन्त घबरा गया। बचाओ की तेज चीख निकल गई। यकायक मन में अपने जैन मित्र के गुरु महाराज याद आए। कई दिनों पहले जैन मित्र के साथ अमर उपाश्रय में गया था। तब गुरु महाराज ने अमर को नवकार मंत्र सुनाया था और कहा था- 'वत्स, जब भय लगे, तब नवकार मंत्र का स्मरण करना। यही संकट, आपत्ति तथा कठिनाइयों में से अपने को पार उतारने के लिए समर्थ है। जिसके हृदय में नवकार उसका क्या करे संसार।' बालक अमर अब सावधान हो गया। माता-पिता ने बेच डाला। राजा मारने के लिए तैयार हुआ और संसार में अब कोई भी शरण नहीं रहा। अतः अब गुरु महाराज के 96 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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