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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
से इति तक बातें बताने लगा। इसी बीच एक चील राजा के महल पर उड़ती-उड़ती आई, जिसके मुँह में कुछ था। रक्त रंजित वस्त्र में उसे कोई स्वाद नहीं आया, अतएव वह वस्त्र राजा के महल पर ही छोड़कर उड़ गई। 'खून से लथपथ यह ओघा किसी मुनि का मालूम - होता है', ऐसा विचार कर रानी राजा के पास गई और कहने लगी- 'महाराज! आपके राज्य में किसी मुनि का घात हुआ है। यह ओघा उसी मुनि का मालूम होता है। उस मुनि ने ऐसा क्या अपराध किया था कि उसे प्राण दण्ड दिया?'
. रानी के प्रश्न के उत्तर में राजा ने अथ से इति तक का सारा वृन्तात कह सुनाया। राजा का कथन सुनकर रानी के दुःख का पार न रहा। अपार वेदना के साथ राजा ने खोज कराई तो मालुम हुआ कि वह मुनि रानी के संसारावस्था के भाई थे। यह जानकर राजा को घोर पश्चाताप हुआ। रानी के कहा- 'मात्र पश्चाताप करने से मुनि फिर से जीवित नहीं होंगे। इस मुनि के मार्ग का अनुकरण करेंगे तभी अपना कल्याण है।'
आत्मनिंदा करते-करते राजा-रानी ने संयम मार्ग ग्रहण करके आत्मकल्याण
किया।
. जीव संसार सागर में परिभ्रमण करते-करते अनन्त काल बिता देता है। इस कारण उसे अध्यात्म की प्राप्ति नहीं हुई। ऐसा अध्यात्म, जो संसार सागर से पार लगा दे, वह चरमावर्त काल में ही प्राप्त होता है। अचरमावर्त काल में जीव को सच्चे अध्यात्म-सुख की प्राप्ति नहीं होती है। अध्यात्म का अर्थ है आत्मा की प्रीति, शुद्ध स्वरूप का भान, तत्त्व के प्रति श्रद्धा। अचरमावर्त काल में आत्म-तत्त्व के प्रति प्रीति न होने के तीन कारण बताए
गए हैं
1. जीव के अभी बहुत भव बाकी हैं। . 2. आत्मा में अतिशय मलीनता है, भव्यत्व की अपरिपक्व अवस्था है।
3. अतत्त्व अभिनिवेश यानि अतत्त्व का आग्रह कदाग्रह छूटा नहीं है। ... अतत्त्व के प्रति आग्रह यानि जबरदस्त पकड़ होना आत्म-प्रगति में अवरोधक है। गलत वस्तु को पकड़कर छोड़ता नहीं, वह कदाग्रह है। इसलिए शास्त्रों में श्रेष्ठ गुण प्रज्ञापनीयता का उल्लेख मिलता है। आराधक आत्मा में सर्वप्रथम यह योग्यता होनी पाहिए। प्रज्ञापनीयता हो तो गुरुजनों द्वारा समझायी गई बातें हृदय में स्पर्श करती हैं। इसके बिना संयम-तप-चारित्र की सभी आराधना व्यर्थ चली जाती है।
हरिभद्रसूरि जी महाराज के मन के भीतर जब तीव्र आवेश आ गया था, तब 1400 बौद्धों को कौए बनाकर गरमागरम उबलते हुए तेल में तलने का जघन्य कोटि का
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