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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पाप की प्रवृत्ति चली जाती है। केवली प्ररूपित धर्म की शरण से सर्व कर्मों की निर्जरा होती श्रेणिक महाराजा ने जब से परमात्मा महावीर की शरण स्वीकार की थी, तभी से वे सुखी बन गये। और तो और, दूसरे भव में वह स्वयं भगवान् महावीर के समान बन जाते हैं। जो समर्पण भाव के साथ शरण में आता है, उसको प्रभु अपने जैसा ही बना देते हैं। मोह राजा बड़ा बलवान है। हम जैसे-जैसे ऊँचे उठने का प्रयास करते हैं, वैसे-वैसे मोह रूपी डाकू के हमले तीव्र होने लगते हैं। उस समय परमात्मा की शरण स्वीकार कर ली हो तो हमें किसी का भय नहीं लगेगा। हम निर्भय बन जायेंगे। शरण को छोड़ना नहीं। जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए को लकड़ी का तख्ता हाथ लग जाता है, उसे कठिनाइयों में भी पकड़ कर रखता है तो वह बचकर समुद्र से पार हो जाता है; उसी प्रकार कठिनाइयों में भी प्रभु की शरण को जो नहीं छोड़ता है, वह संसार रूपी समुद्र से, भवसागर से पार हो जाता है। शरण स्वीकार कर लेने से अरिहंत भगवान् हमें भी अवश्य भवसागर से पार करेंगे। जिनेश्वर आदि की शरण हमारी द्रव्य व भाव, दोनों अपाय से रक्षा करते हैं। यदि मुम्बई जाना हो तो आप बस में बैठते हैं। फिर पीछे खड़े रहने वालों या मार्ग में आने वालों की चिन्ता कौन करता है? 200, 500 रुपये टिकट के देकर विश्वासपूर्वक बस में बैठते हैं। टिकट ले लेने से भीतर निश्चिंतता आ जाती है। वैसे ही जिन शासन को प्राप्त करने के लिए एक टिकट बनवा लो और जिन शासन की नौका में बैठ जाओ। चार शरण ही जिन शासन की नौका है। इनमें इतनी अधिक ताकत है कि वे नौका में बैठने वालों की द्रव्य और भाव, दोनों अपाय से रक्षा करते हैं। अपाय अर्थात् दुःख, प्रतिकूलता, रोग, पेढ़ी की चिन्ता, ये सभी द्रव्य अपाय है। मोह, राग, रति, वेदना, ये सभी भाव अपाय हैं। मन के भीतर उठने वाले अध्यवसायों से रक्षा ये शरण ही करेंगे। मोह के डाकू दूर से ही भाग खड़े होंगे। परंतु सदैव स्मरण रखना होगा, शरणों का स्वीकार सम्यक् होना चाहिए। बीसवें तीर्थंकर भगवंत मुनिसुव्रत स्वामी को एक अश्व को प्रतिबोध देने व उसकी रक्षा के लिए साठ मील विहार कर रात्रि में आना पड़ा; क्योंकि उस अश्व ने अरिहन्त परमात्मा की शरण स्वीकार की थी। अश्वमेध नामक यज्ञ में वह अश्व समाप्त होने वाला था। किन्तु, जाति स्मरण ज्ञान से जानकर उसने परमात्मा की एकमात्र शरण स्वीकार कर ली और ध्यान में स्थिर खड़ा हो गया। उसकी वही सच्ची पकड़ परमात्मा को साठ मील दूर से यहाँ तक खींच कर ले आई; और उस अश्व की रक्षा हुई। इसलिए कहा 90 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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