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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण गया है कि जैसे-जैसे अरिहन्त आदि चारों की शरण स्वीकार करेंगे, वैसे-वैसे उत्कृष्ट कोटि के संयोग स्वयं सामने उपस्थित होंगे व उत्तम कोटि का चारित्र मार्ग सम्प्राप्त होगा। नवकार मंत्रहीतारे भव्यत्व के परिपाक का चिन्तन करना जीवन का हेतु होना चाहिए। अरिहन्त आदि ही मेरे शरण रूप हैं, दूसरा कोई भी नहीं। भयंकर आपत्ति, संकट, रोग, कष्ट, दुःख में भाई-बहन, माता-पिता आदि परिजन, कोई भी रक्षा नहीं कर सकते हैं। रक्षा की ताकत मात्र इनकी शरण में ही हैं। कहते हैं कि बड़े से बड़े जेड सिक्युरिटी वाले भी इस दुनियाँ से विदा हो गये, किन्तु 'नमस्कार महामन्त्र' जिनके हृदय में बस गया, वे इस संसार से पार हो गये। भविष्य में आने वाली आपत्ति, संकट के समय मन में दृढ़ संकल्प धारण करना चाहिए कि इनकी शरण के अलावा और कोई भी मेरी रक्षा करने वाले नहीं है। मन में आने वाले अशुभ विचारों से भी ये ही रक्षा करने वाले हैं, क्योंकि मन आत्मा के अधीन नहीं है। __मन में उठने वाले बुरे विचार आत्मा का हित करने वाले नहीं हैं। एक सुअर खा-पीकर कीचड़ में पड़ा रहेगा तो उसे कैसे विचार आएँगे? उसका मन कहाँ दौड़ेगा? कीचड़ में ही या कहीं और? क्योंकि उस सुअर ने कीचड़ के अतिरिक्त कुछ और देखा ही नहीं है। हमारी आत्मा ने भी अनादि काल से इन्द्रिय-विषय रूपी कीचड़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखा है। हम आहार आदि संज्ञाओं में पड़े रहे। एक भव में ही नहीं अनादिकाल से ही इन पाँचों इन्द्रिय विषयों के सेवन में हम भटकते रहे; तो इस भव में भी पुनः उसी का ही विचार आएगा। सुन्दर पुष्पों का बगीचा, धर्म, वैयावच्च, आराधना, स्वाध्याय, परमात्म भक्ति, पूजा रूपी सुन्दर उद्यान तो हमने कहीं देखा ही नहीं। सुन्दर पुष्प देखना है तो धर्म-आराधना रूपी बगीचे में भ्रमण करना होगा। जैसे कि भ्रमर को सदैव पुषों का चिन्तन चलता है। पुष्पों के विचार ही उसे पुष्यों के पास खींच लाते हैं। परमात्मा हीरक्षणहार . हमारी आत्मा में कर्म रूपी आठ-आठ चोर विराज रहे हैं। ये चोर किस समय कौन सा अहित कार्य हमारे द्वारा कराने को कटिबद्ध कर दें, यह कुछ नहीं कह सकते हैं। किन्तु जब भी इन कर्मों का उदय आता है तब नवीन कर्मों का बंध निश्चित ही है। उस समय हमें कैसे जागृत रहना चाहिए? पंच सूत्रकार कहते हैं- 'हे देवाधिदेव! मुझे मात्र अब आपकी ही शरण स्वीकार है। हे परमात्मा! जिस समय मिथ्यात्व की गहन कालिमा युक्त आँधी आए, उस समय तुझे ही मेरी रक्षा करनी है। मैं जब कभी भी गलत मार्ग में भटक 91 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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