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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
जाऊँ तो पुनः सम्यक् मार्ग में मुझे तुझे ही लाकर बचाना होगा। तू ही माता, तू ही भ्राता, त ही रक्षणहार है। हे प्रभु! आज दुनियाँ के लोग इतनी विकट परिस्थिति में जी रहे हैं तो आने वाला कल कैसा होगा? फिर इस जिन शासन का क्या होगा? संघ, तीर्थ, मंदिर आदि का क्या होगा? धर्म संस्कृति पर जब भी आपत्ति आएगी; जैसे भी उपसर्ग आएँगे, तब मात्र तू ही बचाना। भगवान्! मुझे एक मात्र तेरा ही आधार है। हे तारणहार! मुझे मेरे पापों से, दुःखों से छुड़ाने वाला कोई नहीं है।'
जिस प्रकार अमर कुमार पर विकट परिस्थिति में जब दुःखों का पहाड़ गिरा, माता-पिता परिजनों ने नहीं अपनाया, उसका साथ छोड़ दिया, तब नमस्कार मंत्र की शरणागति ही चमत्कार सृजन करती है। अमरकुमार की कथा
राजगृही नगरी अत्यन्त सुन्दर थी। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। वह शैवधर्मी था, परन्तु जैन धर्म का द्वेषी भी था एवं शिकार का अत्यंत प्रेमी था।
एक बार श्रेणिक राजा को अपनी नगरी में एक अद्वितीय चित्रशाला बनाने की इच्छा हुई। संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। उसने तुरन्त देश-परदेश से अच्छे-अच्छे शिल्पी एवं कुशल चित्रकारों को बुलाया।
चित्रशाला बनाने का कार्य जोर-शोर से आरम्भ हुआ। दीवारें, खण्ड एवं बागबगीचे तैयार हो गये। शिल्पियों ने चित्रशाला में नक्काशी कार्य तो इतना अद्भुत किया कि उसके आगे कुछ भी उपमेय नहीं। ऐसी अद्भुत चित्रशाला तैयार हो गई।
चित्रकारों ने प्रत्येक दीवार पर ऐसे चित्र बनाए कि देखने वाले आश्चर्यचकित हो जाएँ। एक बार स्वयं श्रेणिक राजा चित्रशाला को देखने आए। एक स्थान पर चित्रित मुँह फाड़े खड़े सिंह को देखते ही राजा एक क्षण के लिए तो घबरा गए। बाद में यकायक ध्यान आया कि यह तो चित्र है। अनेक लोग देश-परदेश से चित्रशाला को देखने के लिए आते थे। चित्र इतने जीवंत थे कि देखने आने वाले लोग भी आश्चर्य चकित हो जाते थे।
चित्रशाला पूर्णरूप से तैयार हो गई, किन्तु मुख्य दरवाजे के अभाव में बाहरी दृश्य शोभारहित लग रहा था। राजा ने शिल्पियों को नक्काशी वाला सुन्दर दरवाजा तैयार करने की आज्ञा दी और साथ ही यह भी कह दिया कि दरवाजे में ऐसी पुतलियाँ बनाना, जिसे देखने वालों को ऐसा लगे कि जीवंत स्त्रियाँ ही हैं।
शिल्पियों ने अपनी सम्पूर्ण शिल्पकलाओं का उपयोग कर राजा की इच्छा से भी
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