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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश आत्म स्वरूप पर्व में 'नमो वीयरागाणं' सूत्र से इष्टदेव को नमस्कार किया गया। वह नमस्कार मंगल के लिए है। उसके पश्चात् विविध विशेषणों से परमात्मा के गुणों को जाना, जिससे उनके वचन हमारे हृदय में सरलता से उतरे। परमात्मा की वाणी पर जरा भी शंका न हो, इसलिए अब हमें जानना होगा कि परमात्मा मुक्ति की साधना का क्या उपाय बताते हैं? पापप्रतिघात- पाप नाश का उपाय यानि पाप उच्छेद से ही संसार का उच्छेद होता है। यह संसार किसका है? कब से है? किस प्रकार बना हुआ है? और कैसा स्वरूप और परिणाम वाला है? 'ईह खलु अणाइजीवे' ईह अर्थात् लोक में है, अलोक में नहीं। जीव यानि आत्मा। भिन्न-भिन्न ज्ञानादि पर्यायों में (अवस्थाओं में) नियमित रहे, वह आत्मा है। यही आत्मद्रव्य अनादि काल से है, सनातन है। नया उत्पन्न नहीं होता है। नवीन शरीर की उत्पति से आत्मा भी नवीन उत्पन्न होती है, यह धारणा / मान्यता गलत है। क्योंकि पूर्व में जो सर्वथा असत् था, वह कभी भी उत्पन्न होकर जगत् में आ ही नहीं सकता है। उसी प्रकार पंचभूत के समूह में आत्मा नवीन ही उत्पन्न हुई है, ऐसा मानना गलत है। जैसे माटी के पिंड में अप्रकट रूप से घड़ा है, जब उस पर घड़ा बनाने की क्रिया करते हैं, तब घड़ा प्रकट होता है। तंतु में अप्रकट रूप में भी घड़ा नहीं है, इसलिए तंतु क्रिया से कभी भी घड़ा प्रकट नहीं होता है। उसी प्रकार पृथ्वी आदि पंचभूत में अप्रकट रूप से चैतन्य है ही नहीं। इसलिए नया प्रकट हो ही नहीं सकता है। आत्मा उससे उत्पन्न हुई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस सिद्धांत को सत् कार्यवाद कहते हैं। स्याद्वाद की शैली तो सदसत्कार्यवाद है, अर्थात् मिट्टी में घड़ा कथंचित् सत् है, इसलिए सत् भी है और असत् भी है। अघटित रूप से सत् है और घटित गोलाकार रूप से असत् है। जबकि तंतु में घड़ा सर्वथा असत् है। अब यदि आत्मा को भी सर्वथा असत मानेंगे तो यह कभी प्रकट होगी ही नहीं। इसलिए आत्मा अनादिकाल की और जड़-भूत से एकदम अलग प्रकार की सिद्ध होती है। यह आत्मा स्वयं के आत्म प्रदेशों पर कर्म के योग से शरीर की रचना करती है। . संसार का स्वरूप : जैसे आत्मा अनादि काल से है, वैसे जीव का भव अर्थात् संसार भी अनादि काल से है। संसार अर्थात् आत्मा की बदलती रहती अशुद्ध अवस्था, .आत्मा की विभाव दशा, मनुष्यादि गति, शरीर इत्यादि है। किसी काल में जीव एकदम शुद्ध, फिर कर्म से युक्त बना, ऐसा संसार पहले कभी था ही नहीं। जिसमें प्राणी कर्मों के परवश होकर मनुष्य, देव आदि रूप में उत्पन्न होता है, ऐसे संसार को भव कहते हैं। ये Jain Education International 41 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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