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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश अनादि संसार भी अनादि काल से कर्म संयोग से चला आ रहा है। अनादि की वस्तु, संसार ये अनादि के कारणों से होते हैं। नहीं तो जो पूर्व में किसी समय आत्मा कर्म संयोग से रहित होती, तो वह शुद्ध होती, और ऐसी शुद्ध आत्मा को मुक्ति मिले हुए जीव की तरह पुनः संसार शुरू करने का कोई कारण ही नहीं होता। फिर संसार होगा ही किस प्रकार से? वर्तमान संसार और शरीर, इन्द्रिय, प्राण इत्यादि पूर्व में बाँधे हुए कर्मों के कारण मिलते हैं। जैसे-जैसे पूर्व कर्म किये, वैसे-वैसे शरीर आदि मिले हैं। इसलिए शरीर आदि का प्राप्त होना उसके कर्मों के अधीन है, तभी ये कर्म, शरीर आदि संसार के लिए ही बंधे हुए है। ये शरीरादि उसके भी पूर्व के बाँधे हुए कर्मों से मिले हैं और वे कर्म उससे भी पूर्व के शरीर द्वारा, और वह शरीर पूर्व के कर्म द्वारा...। इस प्रकार पूर्व पूर्व काल का शरीर और कर्म का विचार करने से संसार और कर्म-संयोग का प्रवाह अनादि सिद्ध होता है। युक्ति सिद्ध इस अनादि संसार को नहीं मानते और कहते हैं- 'कभी तो इसकी शुरूआत हुई ही होगी।' इस प्रकार मनमानी काल्पनिक कल्पना करते हैं, यह युक्ति रहित है। क्योंकि इस प्रकार मानें तो सबसे पहली आद्य शुरूआत को तो कारण बिना का मानना पड़ेगा, जो गलत है। जगत् में कारण बिना कार्य हो ही नहीं सकता। कोई एक कर्म संयोग या संसार व्यक्तिगत रूप से उत्पन्न करने वाला होगा, जो जरूर प्रारम्भ वाला है। फिर भी उससे पूर्व उसके कारण रूप दूसरा ऐसा संसार और कर्म संयोग था ही, ये भी अनिवार्य है। इस प्रकार पूर्व-पूर्व का विचार करने से यह संसार प्रवाह से अनादि काल का सिद्ध होता है। अर्थात् संसार के होने की क्रिया अनादि काल से चल रही है। जैसे समय, घड़ी, वर्ष इत्यादि काल नये ही उत्पन्न होने वाले हैं, फिर भी काल का प्रवाह अनादि काल से चल रहा है, वैसे ही अनादि काल संसार के लिए समझना चाहिए। अनादिकाल की संसार यात्रा : संसार में निश्चय ही अनादि काल से जीव हैं। यह बहुत ही चिन्तनात्मक प्रश्न है कि क्या इस विश्व में हमारा जीव अनादि काल से है, और इसकी कोई आदि यानि आद्य उत्पति भी नहीं है? ऐसा कोई काल नहीं था, जब हम थे ही नहीं। अनन्तकाल से हम इसी लोक में थे और अनन्तकाल तक यहीं रहने वाले हैं। आज तक अपना जीव इसी संसार में कहीं न कहीं जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता हुआ यहाँ आया है। स्थिरता तो हमारी कहीं भी नहीं रही। अतः हे भव्य जीव! क्षणभर के लिए विचार कर कि अनादि काल से हमारा जीव इस संसार में ही है तो इतने समय कहाँ था? क्या कर रहा था? इसका अनादि इतिहास क्या है? किस प्रकार यह मनुष्य जन्म पाया? अनादि काल से हमारा जीव निगोद में था। वहीं अनन्त बार जन्म और मृत्यु को Jain Education International 42 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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