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________________ चार शरण परमात्मा बनने की कला की शरण स्वीकार करता है? इसका कारण? स्वयं द्वारा माने हुए सभी सगे-सम्बन्धी, काया, स्वयं की सभी सम्पत्ति आदि कुछ भी स्वयं को शरण नहीं दे सकते हैं। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है। स्वयं को अब तुरन्त परलोक गमन करना है, यह वास्तविकता आंखों के सामने घूम रही है। जीवन भर आचरित पापों से हृदय द्रवित होता है। ऐसी परिस्थिति में स्पष्ट दिखाई देता है कि परलोक जाने में कोई रक्षण दे सकता है तो मात्र अरिहंत आदि चार शरण हैं। बस! ऐसे ही अन्त समय में स्वीकार किये गये शरण की तरह इस जीवन में भी ऐसी परिस्थिति को मन में लाएँ। किसको पता है कि बाद के समय में मैं जिन्दा रहूँगा कि नहीं? ऐसा समझकर गद्गद् भाव से शरण स्वीकार करना चाहिए। ... वैसे तो द्रव्य-संसार खराब है, पर भाव-संसार उससे भी ज्यादा खराब है। सहज में छोटा सा निमित्त मिला नहीं कि अंतर में संकल्प-विकल्प आरंभ हो जाते हैं। अशाता वेदनीय कर्म मात्र शरीर को पीड़ित करता है, जबकि मोहनीय कर्म मन को पीड़ित करता है। यह नहीं करने योग्य पाप करवाता है। हमें किसकी हाय ज्यादा लगती है? रोग आए उसकी अथवा राग हो जाए उसकी? अपनी दृष्टि रोग की तरफ है, परन्तु हम राग की तरफ नहीं देखते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से संसार भयावह लगता है और इस भयावह अटवी को पार लगाने वाले अरिहंत आदि चारों की शरण ही तारणहार कहलाती है। भयंकर कैंसर आदि रोग में शीतलता प्रदान करने वाले, आत्मा की परिपूर्ण रक्षा करने वाले, ये चारों शरण हैं। इन को हर पल हृदय में बसाकर रखना चाहिए। अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म; ये चारों मात्र जीव के शरणभूत हैं। इनके अतिरिक्त सर्वत्र अशरण हैं। हिरणों के समूह पर आक्रमण कर सिंहराज एक हिरण को ले जाता है। उस समय हजारों हिरण भी साथ में क्यों न हों, वे सभी मात्र सिंह को हिरण ले जाते हुए देख सकते हैं, पर उसकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। ____मृत्युराज रूपी सिंहराज जब आक्रमण करता है, तब आस-पास स्थित स्वजन माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची आदि सभी मिलकर भी किसी को मृत्यु से बचा नहीं सकते हैं। मृत्युराज के आगे किसी भी प्राणी का कुछ नहीं चल सकता है। आयुष्य कर्म के पूर्ण होने के पश्चात् कोई भी व्यक्ति एक पल का भी जीवनदान नहीं कर सकता है। कर्म प्रकृति का नियम सर्वत्र लागू होता है। तीर्थंकर भगवान् अचिंत्य शक्ति के स्वामी, प्रचण्ड पुण्य आदि सामर्थ्य बल होने पर भी अपना आयुष्य कर्म एक क्षण के लिए. भी नहीं बढ़ा सके। हर दिन आयुष्य कर्म घटता जाता है। आप भी अपना आयुष्य एक सेकेंड भी घटा या बढ़ा नहीं सकते हैं। इसलिए जब काल रूपी सिंह छलांग लगाकर हमें मारकर Jain Education International 80 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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