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परमात्मा बनने की कला
चार शरण स्वीकार
हमने परमात्मा की शरण अनेक बार स्वीकार की। फिर भी संसार से हमारा निस्तार नहीं हुआ। इसका कारण क्या है ? इसका उत्तर शास्त्रों में यह बताया गया है कि जीव ने अनन्त बार धर्माराधना की तथा चारित्र भी अंगीकार किया, अरिहंत आदि की शरणागति । भी स्वीकार की, फिर भी संसार से पार नहीं हुआ। इसका एक ही कारण समझना होगा कि जीव ने अभी तक श्रद्धापूर्वक शरण स्वीकार नहीं किया, शरण का स्पर्श हृदय की गहराई से नहीं हुआ। अब हमें मात्र परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा भाव जागृत करने हैं।
चार शरण
सूत्र में अरिहंत आदि चार शरणों को अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। इसमें सूत्रकार का एक ही लक्ष्य था कि इन विशेषणों के द्वारा जीवों में अरिहंत परमात्मा आदि चार शरणों के प्रति विशेष श्रद्धाभाव जागृत हो । श्रद्धा जीवन्त होनी चाहिए। जो गुण इनमें दर्शाये गये हैं, वे गुण अन्य में घटित नहीं हो सकते हैं; ऐसी भावना हृदय में पूर्ण रूप से बस जानी चाहिए। ऐसी दृढ़ मान्यता ही हमें अरिहन्त देव के प्रति सच्ची श्रद्धा का सुख प्रदान करेगी। यही भावना जीव को उत्तरोत्तर भावों में आगे बढ़ाती है। इसी से संसार की यात्रा कम होते-होते शीघ्र ही मुक्ति दिलाने वाली बनेगी, ऐसा निश्चित हो जाता है। जब यह तथ्य हृदय को स्पर्श कर जाता है, तब अशुभ आश्रव, पाप का प्रतिघात करता है। पाप का प्रतिघात होते ही गुण रूपी बीजों का आधान करने में समय नहीं लगता है। इसे हम सुलसा महाश्राविका के जीवन प्रसंग से जानेंगे।
महाश्राविका सुलसा की कथा
भगवान् महावीर चम्पा नगरी पधारे। भव्य जीवों पर उपकार हेतु प्रभु अनराधार धर्म देशना फरमा रहे थे। देशनांत में अम्बड़ नामक परिव्राजक वहाँ आया। 'प्रभु...! मैं राजगृही नगरी जा रहा हूँ। कोई कार्य हो तो फरमाइये ?' अम्बड़ को अप्रशस्त जिनधर्मी बनाने हेतु प्रभु ने कहा- 'राजगृही में सुलसा श्राविका को धर्मलाभ कहना।' अम्बड़ आश्चर्यचकित हो उठा। कौन सुलसा... ? नागसारथी की पत्नी...? हाँ वही ... । भगवान् महावीर ने उसे धर्मलाभ कहलवाया। न तो वह राजरानी है, और न वह सेठ श्रीमन्त की पत्नी है, वह तो मात्र सारथी की पत्नी है। एक सामान्य सी नारी को महावीर ने धर्मलाभ कहलवाया। आखिर उसमें क्या हैं?
सम्पूर्ण रास्ते भर में अम्बड़ ने यही सोचा और अन्त में निर्णय किया- 'पहले मैं सुलसा की परीक्षा करूँगा, फिर धर्मलाभ कहूँगा ।'
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