________________
परमात्मा बनने की कला
अम्बड़ परिव्राजक था । अनेक शक्तियाँ एवं विद्याएँ उनके चरण चूमती थीं । योगिनी के सात आदेशों का पालन करने से उसने योगिनी को वश में कर रखा था। सुलसा की परीक्षा करने के लिए उसने जैन मुनि का वेश बनाया एवं सुलसा के गृहांगन में जा खड़ा हुआ।
'धर्मलाभ... ।'
मुनिराज को गृहांगन में आया देखकर श्राविका सुलसा भाव-विभोर हो गई। रोम-रोम पुलकित हो उठा उसका।
चार शरण
'पधारो मुनिवर....पधारो।'
साधुवेशी अम्बड़ ने मुनिराज को न शोभे, वैसी वस्तु की याचना की तो श्राविका समझ गई कि वह साधु नहीं, पक्का ठग है । श्राविका ने अम्बड़ को रवाना कर दिया।
अम्बड़ हताश न हुआ। अपनी विद्या शक्तियों से ब्रह्मा का वेश बना कर वह नगर के बाहर उद्यान में बैठ गया । राजगृही की प्रजा ब्रह्मा के पदार्पण से पागल हो गई। लोग नगर के बाहर दौड़ने लगे। लोगों के टोले के टोले आने लगे। पड़ोसी ने कहा'श्राविका सुलसा...! चलो, आज तो साक्षात् ब्रह्मा पधारे हैं, दर्शन कर आएँ! चलो चलो देखकर तो आएं कि ब्रह्मा जी हैं कैसे ?"
किन्तु सुलसा समकित दृष्टि वाली श्राविका थी । उसने कहा- 'मैं राग-द्वेष को जीतने वाले वीतराग भगवान् को ही देव मानती हूँ। किसी अन्य को नहीं। मैं नहीं आती।'
अम्बड़ ने हजारों लोगों को वहाँ आया देखा । उसकी आँखें सुलसा को ढूँढ़ रही थी, किन्तु सुलसा नजर नहीं आई। तीसरे दिन श्रीकृष्ण की लीला रचकर वह नगर के बाहर सुलसा की राह देखने लगा ।
सारा नगर श्रीकृष्ण के दर्शन को उमड़ा, किन्तु सुलसा वहाँ भी नजर नहीं आई। अत: अम्बड़ ने साक्षात् तीर्थंकर का रूप बनाया एवं नगर के बाहर समवशरण की रचना की। 'मैं पच्चीसवाँ तीर्थंकर हूँ', ऐसी उद्घोषणा भी उसने नगर में करवाई ।
हर्ष के मारे लोगों के टोले के टोले उद्यान में आने लगे। पड़ोसियों ने सुलसा से कहा- 'हमारे भगवान् के दर्शन करने तो तू नहीं आई, किन्तु आज तो तेरे ही तीर्थंकर भगवान आए हैं, दर्शन करने चल, आज तो तू आएगी ना?'
सुलसा श्रद्धावान श्राविका थी । अश्रद्धालु और अन्य श्रद्धालु भी नहीं थी । उसने लोगों से स्पष्ट कह दिया- 'यह तीर्थंकर नहीं, कोई पाखण्डी है, क्योंकि मेरे भगवान्
Jain Education International
77
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org