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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण अरिहंत भगवान् की तरह ही अब मैं सिद्ध भगवान् की शरण को स्वीकार करता हूँ। सिद्ध भगवान् कैसे है? 'पहीण जरामरणा' अर्थात् जिनके जन्म रूपी इत्यादि बीज ही नहीं होने से जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु रूपी अंकुर भी एकदम क्षीण हो गए हैं, जिससे. जन्म-मरण फिर से कभी भी जीव का स्पर्श कर ही नहीं सकता है, इसलिए सदा के लिए अक्षय स्थितिवाले श्री सिद्ध भगवन्त बने हैं। अहो! यह कितनी सुन्दर अवस्था। विचित्र विश्व की रंगभूमि पर विदूषक की तरह नवीन-नवीन गति के वेश में जन्म धारण करना, पुद्गलों को धारण करना, शरीरादि का घाट तैयार करना, इनके पोषण हेतु बेकार की कठिन मेहनत करनी व बाद में भी घसाते रहना, बूढ़े होना या जल्दी मर जाना। इसलिए वहाँ ये सभी लुप्त हो जाते हैं। वहाँ पूर्व की सभी मेहनत, उनका फल और उसमें बान्धे गये पापों का भार, सिर पर इन सभी विडम्बनाओं का हमेशा के लिए अन्त आता हो तो पीड़ा किस बात की? अरे, संसार में दूसरे त्रास-पीड़ा तो बाद की बात हैं, परन्तु मात्र बारम्बार पराधीनता पूर्वक जन्म ग्रहण करना पड़ता है, वह भी विवेकी जन के लिए शर्मनाक बात है। __ छोटे बाल राजकुमार अईमुत्ता जैसे को भी जब परमात्मा महावीर के सान्निध्य में समझ मिली कि 'संसार के पाप से बार-बार जन्म-मरण प्राप्त होता है। अतः चारित्र ग्रहण कर कर्म क्षयकर सिद्ध बनने के बाद फिर कभी जन्म-मरण नहीं करना पड़ता है', अईमुत्ता ने घर आकर माता जी को समझाकर स्वयं चारित्र लेकर कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त किया। सिद्ध बन गये। सिद्ध प्रभु की अक्षय स्थिति का मीठा / मधुर ख्याल ही जीव को स्वयं के जन्म-मरणादि के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न करता है। मुझे ऐसी मनोरम अक्षय स्थिति प्राप्त हो, ऐसी लगन उत्पन्न करता है। जब 'मिच्छामि दुक्कडम्' अन्तःकरण पूर्वक होता है, तब चमत्कार का सृजन होता है और अइमुत्ता मुनि की तरह केवलज्ञान व मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यहाँ हम आपको अईमुत्ता मुनि की कथा बता रहे हैं। अईमुत्ता मुनिकी कथा पोलासपुर नामक नगर था। वहाँ विजय नामक राजा राज्य करता था। उनकी श्री देवी नामक महारानी थी। महारानी श्रीदेवी रूपवती, गुणवती और शीलवती थी। महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम था अईमुत्ता। अईमुत्ता जब छह वर्ष का था तब भगवान् महावीर अपने गौतम आदि शिष्यों के साथ पोलासपुर पधारे। पोलासपुर की जनता भगवान् महावीर के पधारने से हर्षान्वित हो उठी। 106 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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