SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पिता ने कन्याओं से पूछा तो कन्याओं ने जो प्रत्युतर दिया वह सज्झायकार महापुरुष की भाषा में ही बताते हैं आपको 'कन्या कहे निज तात ने आ भव अवर न वरशु रे। जे करशे ए गुणनिधि एह अमें आदरशुं रे ।' कन्याओं ने पिता जी से कहा- 'कन्याएँ एक बार ही किसी को दी जाती हैं। हम तो वाग्दाता हैं। अब हमारे लिए अन्य वर की विचारणा के द्वार बन्द हैं। एक भव में दो वर हम नहीं कर सकती हैं। अतः हे तात ...! आप हमारी चिन्ता न करें। हम विवाह तो गुणसागर कुमार के साथ ही करेंगे। कुमार का जो मार्ग, वही हमारा भी मार्ग होगा। यदि गुणसागर संयम ग्रहण करेंगे तो हम भी साध्वी बनकर आत्म-कल्याण का मार्ग अंगीकार कर लेंगे। ' कन्याओं का प्रत्युत्तर कितना अद्भुत था ? आज की कन्याओं से यदि यह पूछा तो ? आज की बात तो कुछ कह नहीं सकते...! हां सच है, जमाना भ्रष्ट होता जा रहा है । आज की कन्याओं की तो बात ही अलग है । जरा-सी न बनी कि तलाक ले लिया और दूसरी शादी कर ली। यह सब पश्चिमी हवा है। इस विषाक्त हवा ने हमारी संस्कृति को कैंसर का रोग लगा दिया है। यत्र-तत्र सर्वत्र आज पुनर्लग्न का प्रचलन हो गया है। गुणसागर की आठों वागदत्ताओं ने पिता से कह दिया- 'शादी एक से ही की जाती है। दिल एक को ही दिया जाता है। हृदय सिंहासन पर एक को ही बिठाया जाता है, अब हमारे जीवन में अन्य वर का कोई स्थान नहीं है।' कन्याओं के प्रत्युत्तर प्राप्त होते ही विवाह की तैयारियाँ होने लगीं, किन्तु गुणसागर तो मुनि जीवन के विचारों में लीन थे । आहा....हा.... .हा.. ...। कैसा अद्भुत आनन्द प्राप्त होगा ? विवाह का दिन आया । वरघोड़ा लेकर गुणसागर चले आठ-आठ कन्याओं के साथ शादी करने । किन्तु काम-कषाय उनके मन को अब छू भी नहीं सका। उन्हें संयम जीवन की अनुभूति हो रही थी । मंडप में विवाह की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई, किन्तु गुणसागर कुमार का मन तो धर्म-भावशील में मस्त बन गया है। भावना में, सच्ची - भावना में, हृदय की भावना में मग्न गुणसागर कुमार हस्त-मिलाप की क्रिया कर रहे हैं! नहीं, गुणसागर की देह ही यह विवाह क्रिया कर रही है। मन तो भावना में मग्न है। भाव धारा में ऐसे लीन बन गए कि आसपास का वातावरण भी इनको आकर्षित नहीं कर सका। Jain Education International 185 For Personer & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy