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________________ परमात्मा बनने की कला .. दुष्कृत गरे समझाया कि अग्नि में जल मरने से आत्महत्या का पाप लगता है। आत्महत्या से महान् दुर्गति भी होती है। हत्या करने वाले जीवन में प्रायश्चित ले सकते हैं, लेकिन आत्महत्या करने से परलोक में न प्रायश्चित ले सकते हैं, न ही पति का मिलन होता है। अतः जलकर मरने का विचार छोड़ दो और अपना जीवन धर्म अनुष्ठान में लगा दो। उसकी पूर्ण व्यवस्था राज्य की ओर से हो जायेगी। धर्म अनुष्ठान में व्यस्त रहने से तू सरलता से ब्रह्मचर्य पाल सकेगी। तेरा चित्त धर्म अनुष्ठानों से ओत-प्रोत हो जायेगा। रुक्मिणी ने पिता श्री के वचनों को मानकर अपने विचारों को बदल दिया। दिन प्रतिदिन वह अधिकाधिक धर्मसाधना करने लगी। उसमें ब्रह्मचर्य के गुणों का भी विकास होने लगा। इस गुण के प्रताप से उसकी यशोगाथा गाँव-गाँव में पहुँच गई। इसी बीच उसके पिता की मृत्यु हो गयी। उस समय कुछ मंत्रियों ने विचार किया कि राजा निष्णुत्र हैं, इसलिए राज्याभिषेक किसका किया जाये? कुछ मंत्रियों की ओर से यह सूचना थी कि रुक्मिणी यदि पुत्री है, तथापि पवित्र आत्मा है। अतः उसे राजगद्दी पर बिठाना उचित है। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। राजगद्दी पर बैठने के बाद भी रुक्मिणी शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करती थी। इससे उसकी कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई। रुक्मिणी के ब्रह्मचर्य गुण की ख्याति से आकर्षित होकर एक ब्रह्मचर्य प्रेमी बुद्धिमान युवक, जिसका नाम शीलसन्नाह था, वह मंत्रीपद के लिए आया। उसका यह विचार था कि भरण-पोषण भी होगा और एक गुणवान आत्मा की सेवा भी होगी। सद्भाग्य से उसे मंत्रीपद भी मिल गया। एक दिन राज्यसभा में शीलसन्नाह मंत्री बैठा था। राज-सिंहासन पर बैठी हुई रुक्मिणी चारों ओर दृष्टि घुमा रही थी। इतने में यौवन और लावण्य जिसके अंग-अंग में विकसित हो गया था, उस शीलसन्नाह मंत्री पर दृष्टि गिरी, गिरते ही दृष्टि वहीं स्थिर हो गई। अहो! इस मानव का इतना रूप! अरे! यौवन छलक रहा है। मन में ऐसे कुविचारों का चक्र प्रारम्भ हो गया और दृष्टि में विकार आ गया। शीलसन्नाह को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी। वह विचार करने लगा- अरे! मैं तो चारों दिशाओं में ख्यातनाम एक ब्रह्मचारिणी की सेवा करने आया था। ओह! पानी में से आग उठी है। कहाँ जाऊँ? धिक्कार हो इस कामवासना को। क्या इस कामाग्नि से मैं भी भस्मीभूत हो जाऊँगा? नहीं, नहीं... मुझे कहीं और चला जाना चाहिए। यहाँ रहना उचित नहीं हैं। क्या पता, कब उसकी कामाग्नि मेरे आत्मदेह को जलाकर भस्म कर दे? Jain Education International For Persona de private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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