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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना धर्मनिश्चित दृढ़ व मजबूत बनता है। खीर बोहराने के पूर्व भी प्रतिदिन मुनि भगवन्त को अन्य मित्रों के द्वारा दान करते हुए देखता और स्वयं भीतर ही भीतर आहार दान करने की भावना करता कि 'वह दिन कब आएगा, जिस दिन मैं दान दूंगा।' 2. धर्म क्रिया करने से पूर्व उस क्रिया की पूर्व में बारम्बार भावना भानी चाहिए क्रिया करने के पश्चात् पुनः उसी क्रिया की अनुमोदना करनी चाहिए। आध्यात्मिक जगन् का यह नियम है कि जब भी व्यक्ति सच्चे भावों से इच्छा करता है तो उसको अवश्य फल प्राप्त होता ही है। फल प्राप्ति हेतु सच्ची इच्छा / सच्चे मनोरथ के साथ ही आत्मबल मजबूत होना चाहिए। भौतिक जगत् में इससे विपरीत होता है। तुम जिसकी इच्छा करोगे, वह तुमसे उतना दूर चला जाता है। कदाचित् प्रबल पुण्योदय से मिल भी जाता है तो भवान्तर में वही दुर्लभ बन जाता है। बिना इच्छा, बिना अपेक्षा के द्वारा की हुई धर्म क्रिया अत्यधिक सुख प्रदान कराती है। पुद्गल के सुख हमें संसार में भटकाते हैं। जिनशासन के प्राप्त हो जाने के पश्चात् ऐसा हो जाना चाहिए कि मोक्ष के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए। दृष्टि से मात्र यह गुण ही अनुमोदनीय है, परन्तु इससे मिथ्यात्वी अनुमोदनीय नहीं हैं। इनकी प्रशंसा नहीं करनी है। अन्यों में भी दया आदि गुण जो जिनवचन के अनुसार हैं, वे सभी चित्त से अनुमोदनीय हैं, जो समकित का रूप बीज वपन समान निरधार हैं। इसलिए अभिनिवेश होकर यानि दुराग्रह (मनमानी) व अतात्त्विक कल्पनाओं के छोड़कर प्रणिधान की शुद्धि करने में आती है। प्रणिधान अर्थात् कर्तव्यों का निर्णय और अभिलाषा, विशुद्ध भावना शक्ति अनुसार क्रियावाली और उसमें बनी हुई मन के एकाग्रता। उनकी शुद्धि किस प्रकार है? इसलिए तो शास्त्रों में कहा गया है कि 'दानं तपस्तथा शीलं नृणां भावेन वर्जितम्। अर्थहानिः क्षुधा पीड़ा, काय क्लेशश्च केवलम्।।' अर्थात् - दान, शील, तप एवं भाव, ये चारों प्रकार के धर्म आत्मा को तभी लाभदायी बनाते हैं, जब इनमें भाव का प्रादुर्भाव होता है। भाव के बिना दान मात्र अर्थ हानि का कारण बनता है। तप मात्र भूखे रहने से अधिक कुछ नहीं होता है। शील का पालन भावपूर्वक यदि नहीं किया गया तो वह मात्र कायक्लेश ही माना गया है। अतः सभी धर्माराधनाओं, अनुष्ठानों, क्रिया-कांडों में भाव का होना आवश्यक माना गया है। मन के शुभाशुभ परिणाम, शुभाशुभ अध्यवसाय को ज्ञानी भगवंतों ने भाव कह Jain Education International For Perso180 Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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