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परमात्मा बनने की कला
हर्ष, ये साधना को तेजस्वी बनाते हैं।
सभी श्रावकों के द्वारा की गई देव- गुरु की वैयावच्च, तत्त्वश्रवण, धर्मराग, प्रभुभक्ति, साधुसेवा, दान व्रत- नियम तपस्या सामायिकादि स्वाध्याय इत्यादि साक्षात् या परम्परा से मोक्ष साधनभूत है। ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र के व्यापारों की मैं अनुमोदना करता हूँ। मोह का अधिकार आत्मा पर से उठने के पश्चात् ऐसे अध्यात्म योग के अनुष्ठान जीव को प्राप्त होते हैं। ये आत्मा के अद्भुत विकसित गुणों की अवस्था को सूचित करते हैं। ये अवस्था दोषों से भरे हुए इस विशाल जगत् में अति दुर्लभ और महापवित्र होकर, जहाँ कुछ दिखता हो, वहाँ खूब ही अनुमोदनीय है । इतना ही नहीं, सभी देव, सभी जीव जो मुमुक्षु हैं, मुक्ति के निकट हैं, अर्थात् जो चरम पुद्गल परावर्तन में आए हुए विशुद्ध आशय वाले हैं, निर्मल भाव वाले हैं, इनके मार्गसाधन योग की मैं अनुमोदना करता हूँ। मोक्ष के मार्गभूत सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र उनके साधनभूत योग अर्थात् मार्गानुसारी आदि धार्मिक की, देवदर्शन, व्रत सेवन आदि योगों की पूर्वसेवा तथा न्यायसम्पन्नादि मार्गानुसारी गुण, सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के मार्ग को साधने के लिए अनुकूल बनते हैं। मिथ्यादृष्टि को भी मिथ्यात्व होने पर भी इस गुण की अपेक्षा से प्रारम्भिक यानि पहला गुणस्थान कहा गया है। यह अर्थयुक्त है। इस परम्परा से भी मोक्ष साधक के ये गुण ( कुशल- व्यापार, शुभ प्रवृत्ति) अनुमोदनीय है।
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यहाँ समझने जैसा है कि मोक्षमार्ग उपयोगिता की और जिनवचन से अविरोध की सुकृत अनुमोदना करनी, किन्तु स्व अथवा पर, किसकी सुकृत अनुमोदना करनी चाहिए? कहते हैं भावपूर्वक स्व एवं पर द्वारा किए गए सुकृतों की अनुमोदना करने से धर्मफल में गुणाकार वृद्धि होती है । जैसे शालिभद्र के जीव संगम ने पूर्व भव में साधु भगवन्त को भाव पूर्वक खीर वोहराई अर्थात् आहार दान किया, उसी के प्रतिफल रूप शालिभद्र को अढलक ऋद्धि की प्राप्ति हुई। शालिभद्र के जीव ने एक बार खीर दान किया, हमने अनेक बार खीर दान किया परन्तु फिर भी समान परिणाम क्यों नहीं प्राप्त हुआ? तो कहते हैं कि इसके पीछे भी दो कारण छुपे हुए हैं
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सुकृत अनुमोदना
1. पहला कारण यह है कि हम धर्म क्रिया तो करते हैं, परन्तु एकाग्रता पूर्वक, रुचिपूर्वक, आदर बहुमानपूर्वक ऐसी धर्मक्रिया हमारी नहीं होती है। पाप क्रिया तीव्र रसपूर्वक होती है। वहाँ पहले और बाद की पूरी तैयारी होती है; किन्तु जब धर्म क्रिया करते हैं तो बिना तैयारी की होती है। इसलिए धर्म में रूचि जगती नहीं है। धर्मक्रिया करते समय भी रूचिपूर्वक तैयारी होनी चाहिए; तत्पश्चात् अनुमोदना के भाव चाहिए। इसी से
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