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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश जाना है। तब ही अपना यह भव भ्रमण टूटेगा और हम मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। संसार की असारता संसार की असारता को लेकर हर धर्म ग्रंथ में बहुत कुछ कहा गया है। जैन दर्शन में भी संसार की असारता पर परमात्मा ने जीव को सचेत किया है, उन्होंने अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा हृदय को स्पर्श करने वाली एकदम मार्मिक बात फरमाते हुए बताया है कि संसार में सभी जीव अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। इनका न आदि है न अन्त है। मात्र संयोग बदलते रहते हैं। शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा से पर्याय नष्ट और उत्पन्न होते हैं किन्तु संसार में एक भी परमाणु न तो सम्पूर्ण समाप्त होता है, और न ही एक परमाणु भी नवीन उत्पन्न होता है। संसार में जितने भी जीव और पुद्गल हैं, वे उतने ही रहते हैं, कम या ज्यादा नहीं होते हैं। . जो भव्य जीवं संसार की असारता को जान लेता है, वह साधना द्वारा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। किन्तु अभंव्य जीव तो मोक्ष तत्त्व को ही स्वीकार नहीं करते हैं। जैन साधु-संत को धर्माराधना करते देखकर अभव्य जीव विचार करते हैं कि ऐसी आराधना करने से स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। इसी भावना से वे जैन साधु बनते हैं और मक्खी के एक पंख को भी वेदना ना पहुँचे, वैसे शुद्ध चारित्र का पालन करते हैं। द्रव्य से चारित्र का : पालन किया। किन्तु भाव चारित्र का स्पर्श हृदय को नहीं हुआ। मोक्ष के प्रति अरूचि भाव रखते हुए, स्वर्ग की अभिलाषा से साधु जीवन का पालन किया। इसलिए अभव्य जीव मर कर नव ग्रैवेयक में देव ही बन पाते हैं। अभव्य जीव अन्य भव्य जीवों को मोक्ष की सही प्ररूपणा तो करते हैं, पर स्वयं में मोक्ष के प्रति सही रूचि नहीं जगती है। इसलिए कहते हैं कि तीर्थंकरों से भी ज्यादा अनन्त जीवों को अभव्य जीव प्रतिबोधित करते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष नहीं जाते हैं, इसलिए अनादि अनन्त काल तक स्वयं भटकते ही रहेंगे और जो भटक रहे हैं उनको बोध भी देते रहेंगे। अभव्य जीवों का भी ज्यादा समय निगोद में ही व्यतीत होता है। सभी भव्य जीव अचरमावर्तकाल में अभव्य जीवों की तरह ही होते हैं। माया-प्रपंच, कषाय आदि के कारण बार-बार दुर्गति में जाते रहते हैं। वहाँ जीव ने सांसारिक सुखों की कामना के लिए कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को सच्चा देव आदि मानकर उनकी पूजा की। निःस्वार्थ भाव से धर्म नहीं किया। मोक्ष की कामना से नहीं बल्कि भोग की भावना से धर्म किया। धर्म नाम से भी कई बार झूठ-कपट करते रहते हैं। देव गुरु की 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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