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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश भयंकर आशातना करके अनन्त बार नरक में गये। सातों नरकों में 84 लाख नरकावास हैं। उनमें भी जाकर अनन्त बार दुःखों को सहन किया। उन नरकों में से बचने का न तो कोई उपाय किया, न तो बचने का कोई उपाय था। काल के प्रभाव के कारण जीव ने खूब दुःख, भयंकर कष्ट, पीड़ा को ही भोगा। इस संसार में एक भी दःख ऐसा नहीं होगा जो जीव ने नहीं भोगा होगा। यानि पाप करने से दुःख आता है और जीव ने संसार के सभी पापों को हँसते हुए किया। ऐसा कोई पाप नहीं बचा, जो जीव ने नहीं किया। संसार के अनन्त आकाश प्रदेश के एक-एक प्रदेश पर जीव ने अनन्तबार मृत्यु प्राप्त की है। संसार के सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध रिश्ते-नाते बनाये हैं। यानि प्रत्येक जीव के साथ हमने माता-पिता, पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि परिवार के सम्बन्ध बनाये हैं। ‘महानिशीथ सूत्र' में आता है कि एक जीव ने मात्र 'ईयल' के कितने भव किये? तो कहा गया है कि 'ईयल' में से जब जीव च्यव जाता है, तब मात्र कलेवर रहता है। आज तक के सभी ईयल के भवों को इकट्ठा करें तो अनन्त लोकाकाश में समावेश नहीं हो सकते हैं, जीव ने इतने भव मात्र ईयल के भव के किये हैं। यह एक औपचारिकता है। इसी प्रकार तिर्यंच के पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौरेन्द्रिय के अनन्तानन्त भव किये हैं। इतने लम्बे समय तक मुश्किलों और दुःखों को ही झेलते रहे। पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, नरक, मनुष्य और देव के भी अनन्त भव किये। सभी जगह सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सभी प्रकार के दण्ड, सजा, मार खाते-खाते अचरमावर्त काल का लम्बा समय पूर्ण किया। इस प्रकार जीव संसार में भटकता भटकता चरमावर्त काल में आया। यहाँ भी सभी प्रबल पुण्य कर्मों का उदय हो तो ही अनुकूल धर्म की सामग्री मिलती है। देव-गुरु की प्राप्ति होती है। वर्तमान में पूरे विश्व में जैन धर्म कितने जीवों को मिला है? कर्म ने पुण्यात्मा को हरी झण्डी दिखाई और उच्च साधन-सामग्रियाँ प्राप्त हो गई। समय की सार्थकता को जानकर एक क्षण भी व्यर्थ में न जाने दें। क्योंकि जीव पुरूषार्थ के द्वारा ही कर्मों से छुटकारा पा सकता है। वह भी प्रमाद रहित होकर पुरूषार्थ करेगा तो। 'प्रज्ञापना सूत्र' में कहा गया है कि चौदह पूर्वधर समकित धारी जीव भी यदि प्रमाद के वशीभूत हो जाते हैं, स्वाध्याय नहीं करते हैं तो वे मृत्यु के पश्चात् निगोद में उत्पन्न होते हैं। । इस निगोद से बचने के लिए अरिहंत परमात्मा ने जीव को यह समझाया है कि वह इस अमूल्य मानव जीवन को प्रमाद में न गंवा कर अपने मन में वैराग्य के प्रति उत्कृष्ट भाव जगाए। 48 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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