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परमात्मा बनने की कला
उत्कृष्ट वैराग्य के भाव
संसार की असारता जानने के पश्चात् संसार से भय लगना चाहिए। क्योंकि संसार रूपी दावानल से सम्पूर्ण लोक जल रहा है। इस आग में जलते हुए अपने आप को कैसे बचाऊँ? इस भयंकर संसार से हम कैसे छूटेंगे ? कब छूटेंगे ? भीतर ऐसी आवाज उठनी चाहिए। इस दुःख रूपी संसार में अब और नहीं रह सकते, बस आज ही घर परिवार व संसार का त्याग कर संयम लेने के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए। सोचो, आज तक कर्मों ने मुझे चारों गतियों में भटकाया ही है । अब मैं इन कर्मों को तोड़ दूँगा । इन कर्मों ने मुझ पर कौन से जुल्म नहीं किये। संसार की भयंकरता तो अव्यवहार राशि से ही चल रही है। एक साथ अनन्त जीवों के साथ एक काया में बार-बार जन्म मरण का भयंकर दुःख मिला। कितना लम्बा समय वहाँ व्यतीत करना पड़ा। वहाँ से व्यवहार राशि में आया तो कोई सुख नहीं मिला। वहाँ भी अचरमावर्त काल का लम्बा समय दुःख, पीड़ा सहन करने में ही पूर्ण हो गया । तिर्यंच गति में बादर एकेन्द्रिय बना, पर वहाँ भी सुख से जीने नहीं दिया गया। पृथ्वीकाय का जीव बना तो लोभ-मोह के कारण पहाड़ तोड़कर उन पत्थरों से बड़े-बड़े मकान बनाते, खदान खोदकर उनमें से सोना निकाल कर आभूषण बनाकर पहनते । अप्काय का जीव बना, वहाँ भी किसी ने मुझे सरलता से बहने नहीं दिया, बिना आवश्यक भी मेरा बहुत दुरूपयोग किया जाता था । इस तरह अग्नि या वायु या वनस्पति बना। वहाँ भी लोगों ने अपने सुख के लिये हमारे ऊपर कष्टों का पहाड़ गिराने का काम किया। स्वयं की खुशी के लिये हम पर छेदन-भेदन आदि पीड़ा देने का ही कार्य करते । इस तरह स्थावर के भव में अपार दुःख अनन्त काल तक भोगे । फिर त्रस जीव बना तो वहाँ भी छोटे जीव, बड़े जीवों का आहार बन जाते थे। मौका देखते ही पकड़कर मार डालते थे । बैल के भव में मुझसे हल चलवाया गया। गाड़ी से बँधकर भार खींचना पड़ा। कुत्ते के भव में पत्थरों की मार पड़ी। घोड़े के भव में चाबुक खाने पड़े। मछली बना तो मछुआरे पकड़ लेते • थे। पक्षी बना तो शिकारी जाल में फँसा कर मार डालते थे। ये तो पंचेन्द्रिय तिर्यंच के भव हैं। संसार के दुःखों को सहन नहीं कर पाते, तब पाप कार्य करते थे, इससे कई बार नरक में भी जाना पड़ा। वहाँ भी परमाधामी देव, जीवों को खूब तड़पा-तड़पा कर वेदना देते थे । क्षेत्र के दुःख भी अपार सहन करने पड़े। 84 लाख जीव योनि में भटका ही भटका । कहीं पर भी अच्छे भाव जागृत नहीं हुए । अनुत्तर देव एवं इन्द्रदेव के भव को छोड़कर, संसार में ऐसा कोई भी छोटा या बड़ा भव नहीं है, जिसे हर जीव ने प्राप्त न किया हो । अर्थात् सभी प्रकार के शरीर धारण किये। जन्म और मृत्यु से सभी स्थानों को स्पर्श करके आया । अचरमावर्त
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अरिहंतोपदेश
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