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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश सही उपयोग नहीं किया। आराधना के स्थान पर आशातना करके फिर से दुर्गति में
गिरा। 5. पुरुषार्थ - सच्चा धर्म मिलने के पश्चात् पुरूषार्थ करना हमारा कार्य है। पुण्योदय से
भोजन प्राप्त हो गया, परन्तु खाने का पुरूषार्थ स्वयं करेगा तभी पेट भरेगा। सामग्री मिलने तक का कार्य हो गया। अब उपयोग मात्र सही प्रयत्न व मेहनत द्वारा होना चाहिए। जब जीव सच्चा पुरूषार्थ कर कर्मों का क्षय करेगा तभी मोक्ष रूपी मंजिल को प्राप्त करेगा।
____ हमें जानना होगा कि अपना सही व सच्चा घर कहाँ है व कौन सा है? सर्वप्रथम 'भव्यत्व स्वभाव' के कारण हमारी नियति जागृत हुई और अव्यवहार राशि से बाहर आने का अवसर मिला। वैसे अनन्तानंत जीव भव्य होने पर भी कभी बाहर नहीं आ सकने के कारण मात्र जाति भव्य ही कहलाते हैं। सिद्ध जीवों के अनन्त उपकार से व 'नियति' जगने से हम बाहर आए। तत्पश्चात् भी अनन्त पुद्गलपरावर्तन काल तक संसार की यात्रा करते हुए तीसरे उपाय 'काल' को पार किया। फिर अनन्तकाल व्यतीत होने पर भी तुरन्त धर्म नहीं मिल पाया। 'कर्मयोग' व पुण्योदय से ही उत्तम व श्रेष्ठ धर्मसामग्री मिली। शुभकर्म के उदय से सुदेव, सुधर्म आदि सही साधन मिलने के पश्चात् मात्र एक ही कार्य बचता है, वह है 'पुरूषार्थ'। पहले चार कारण अपने हाथ में नहीं थे। उसके लिए इन्तजार करना ही पड़ता है, परन्तु चार कारण को पार करने के बाद पुरूषार्थ करना अपना कर्त्तव्य है। यदि अब भी सच्चा पुरूषार्थ नहीं करेंगे तो प्रकृति हमसे सभी सामग्री छीन लेगी। भाग्य से हमें देव, गुरु, धर्म मिले। फिर भी हम संसार को भोगने में, खाने-पीने में, मौज-शौक करने में सम्पूर्ण जीवन समाप्त कर देंगे तो फिर यह दुर्लभ जीवन दुबारा नहीं मिलेगा। इसलिए कड़ी मेहनत यानि कठिन पुरूषार्थ कर हमें साधना में लीन बनना है। आज भी ऐसे महान् संत हैं जो प्रमाद को छोड़कर 14-15 घण्टे स्वाध्याय, ध्यान में लीन रहते हैं तो क्या हम 2-4 घण्टे भी स्वाध्याय, ध्यान आदि नहीं कर सकते हैं?
मनुष्य जन्म ही प्रतिदिन अरबों की कमाई कराने वाली पेढ़ी है। इस अमूल्य पेढ़ी में बैठने के बाद भी यदि हम मात्र खाने-पीने में अपना समय बिगाड़ देंगे तो क्या यह पेढ़ी आगे चल पायेगी। उस पेढ़ी में आगे नुकसान ही उठाना पड़ेगा। अनादि काल के दुःखों को याद करके चिंतन करो। किस भव में हमने संसार को नहीं भोगा? यानि संसार भोगने का कार्य ही हर भव में हमने किया। उनको याद कर मात्र धर्म पुरूषार्थ में लग जाना है। परमात्मा के द्वारा बताये गये धर्म-मार्ग पर आरूढ़ होकर तप-जप स्वाध्याय-ध्यान में लग
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