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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश कौन थी? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान क्यों नहीं देता है? 'आचारांग-सूत्र' में लिखा है कि अधिकतम जीव अपने को एक भारतीय या हिन्दू के रूप में जानते हैं। ज्यादा से ज्यादा जानेंगे तो 'मैं आत्मा हूँ', ऐसा जानते हैं। तत्त्व को जानकर तत्त्वों की बात करने वाले दुनियाँ में विरले लोग ही हैं। जो स्वयं को आत्मा मानता है, वह अपने विषय में ऐसा विचार करेगा कि मैं कहाँ से आया हूँ? मर कर मुझे कहाँ जाना है? मेरे ही सामने मेरे पूर्वज, सम्बन्धी, परिवारजन यमराज के घर पहुँच गये। फिर भी मैं मूर्ख की तरह प्रमाद में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। सबकी ही तरह मुझे भी एक दिन यहाँ से जाना है। इस बात को एक उदाहरण से समझें __ एक व्यक्ति भोजन करने बैठा। थाली में भोजन परोसा गया। पहला कवल मुँह में डाला। उसे अच्छी तरह चबाया। पहले कवल की स्थिति देखकर रोटी का दूसरा कवल उस पर हँसता है कि देख तुझे कैसे चबाया जा रहा है। उसकी इस स्थिति पर खुश हो रहा है और अपने आप को बच गया जान रहा है। पर वह यह नहीं समझ पा रहा है कि उस कवल की तरह ही उसे भी दूसरे ही क्षण चबा दिया जाएगा। ऐसी ही स्थिति हमारी भी बन गई है। प्रतिदिन समाचार पत्रों में भयंकर ट्रेन दुर्घटना में सैकड़ों मनुष्य मर गये, बीमारी से कितनों की मौत हो गई, घी, दूध, अनाज में मिलावट करने से उस जीव को पकड़ा गया। ऐसे अनेक दुःखद समाचार पढ़ने के पश्चात् हमारे मन में कैसे विचार आते हैं? आज सम्पूर्ण परिस्थितियाँ ही बदल गई हैं। आपके पास करोड़ों रुपए क्यों न हों, आपको शुद्ध घी, दूध नहीं मिल सकता है। और हम ही कहते हैं कि आज विज्ञान खूब प्रगति कर रहा है, उद्योग का विकास हो रहा है। चन्द वर्षों का यह जीवन मिला है, प्रतिदिन मृत्यु हमारे निकट आ रही है, फिर भी यदि हम जागृत नहीं होंगे तो पुनः अनन्तकाल के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त होगा। यहाँ से न करोड़ों की सम्पत्ति साथ जायेगी, न परिवार साथ जारोगा। धन या धर्म क्या साथ चलेगा, सोचो? अनन्तकाल तक जीव ने संसार में भटकने का ही काम किया है। कर्मों ने जितने डण्डे मारे, उतनी मार हमने भी खूब खाई। अब हम पुरूषार्थ करके धर्म साधना नहीं करेंगे, तो कर्मों ने तो परेशान किया ही था और करते ही रहेंगे। अपना अतीत का इतिहास तो ज्ञात हो गया। अब भविष्य को कैसा बनाना है, यह अपने हाथ है। जिस किसी जीव का इतिहास सुनते हैं, वह हकीकत में अपना ही इतिहास है। अपना इतिहास सुनकर या पढ़कर संसार के प्रति तीव्र वैराग्य जग जाना चाहिए और संयम लेकर सुन्दर आराधना द्वारा कर्मों का क्षय करना चाहिए। अमूल्यमानव जीवन 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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