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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश तेजस्विता प्राप्त होगी। ब्रह्मचर्य के पालन से ज्यादा भोग सुख प्राप्त होंगे। इस प्रकार फल की इच्छा रख कर धर्म नहीं करना चाहिए। इच्छा सदैव एक ही होनी चाहिए। मेरी आत्मा कब मोक्ष को प्राप्त करेगी। अब संसार सागर में नहीं डूबना है ! मांगना भी हो तो भवसागर से तिराने वाली सामग्री का संयोग मांगें । समाधिमरण, सुगुरु का संयोग, गुरु वचन / आज्ञा का पालन मांगें, जिससे कि आगे चलकर ये सभी मोक्ष रूपी लक्ष्मी देने वाले बनें। हमें अशुद्धता से शुद्धता की ओर जाना है। शुद्ध धर्म तुरन्त यानि शुरुआत से प्राप्त नहीं होता, लेकिन लक्ष्य शुद्ध धर्म का ही होना चाहिए। उसकी अवगणना न करें। फिर भी कोई यदि संसार के सुखों की इच्छा से धर्म करता हो तो उसकी भावना को ठेस पहुँचे, वैसा नहीं कहना चाहिए। संघ में गीतार्थ आचार्यों की जवाबदारी बहुत बड़ी होती है, क्योंकि वे ही जीव को अशुद्ध धर्म से धीरे-धीरे शुद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं । यहाँ समझने जैसा यह है कि कोई अशुद्ध धर्माराधना करता हो तो उसे नीचा नहीं दिखाना चाहिए और न ही निम्न दृष्टि से देखना चाहिए। उसका धर्म नहीं छुड़वाते हुए मीठे वचनों द्वारा समझाना चाहिए कि तू लाख की कमाई को राख में क्यों खो रहा है। जिस धर्माराधना से देवलोक के सुख या मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है, तो ऐसे भयंकर इहलोक के तुच्छ सुखों की अपेक्षा क्यों ? धर्माराधना द्वारा जीव अनुकूलता पूर्वक मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ता है तो तू असार संसार की अपेक्षा क्यों रखता है? इत्यादि अनेक प्रकार से उसे समझा कर धर्म की ओर मोड़ना चाहिए। अब हमें यह निश्चय करना है कि हमें मात्र विशुद्ध धर्म ही चाहिए। प्रारंभ काल में बालजीव की तरह आराधना चली पर अब प्रौढ़ युवान की तरह चलना है। विशुद्ध धर्म की ही आराधना करनी है । भगवान् की भक्ति करते हुए कवि धनपाल कहते हैं - हे भगवान् ! तेरी भक्ति करने से मुझे देवलोक की भोग-सुख-समृद्धि नहीं चाहिए। तेरी भक्ति से मेरे नरक का दुःख समाप्त हो जाए, ऐसी भी इच्छा नहीं है। आपत्ति निवारण, रोगादि निवारण या चक्रवर्ती आदि पद भी नहीं चाहिए। यदि मुक्ति भी मिलने वाली हो तो भी नहीं चाहिए। मुझे तो मात्र तेरी भक्ति, केवल तेरी भक्ति ही चाहिए। ये मिल गया तो जीवन में सब कुछ मिल गया। सही भी कहा है कि जब भक्तजन परमात्मा की भक्ति में ऐसे एकाकार हो जाते हैं, तब इनकी मुक्ति की इच्छा भी छूट जाती है। शुद्ध धर्म संसार से छूटने का महत्त्वपूर्ण मार्ग शुद्ध धर्माचरण है। शुद्ध धर्माचरण के लिए बहुमानपूर्वक धर्माचरण, संज्ञानिग्रहपूर्वक धर्माचरण, फल की इच्छा से Jain Education International - 62 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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