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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश
रहित धर्माचरण होना चाहिए। इनका पूरा-ध्यान रखना होगा। परमात्मा ने भी शुद्ध धर्माचरण के लिए राजपाट, सुख-समृद्धि, भोग-ऋद्धि, परिवार आदि सब कुछ छोड़ा... अर्थात् धर्म, संसार सुख को प्राप्त करने के लिए नहीं किया जाता है। शुरुआत में प्रत्येक बालजीव संसारी इच्छा से धर्म करता है, पर समझ आने के पश्चात् उसे छोड़ देना चाहिए। धर्म मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। फिर भी कोई पूछे कि संसार के दुःखों को दूर करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? तो उसे यही कहना चाहिए कि शारीरिक रोग, मानसिक रोग आदि सभी प्रकार के कष्ट धर्माचरण से ही दूर हो सकते हैं। अतः निस्वार्थ भाव से धर्म करो।
संज्ञाओं को तोड़ना, इच्छाओं का निरोध करना इतने सरल कार्य नहीं हैं। संसारिक जीवों के लिए ये कार्य बहुत कठिन हैं। फिर भी सांसारिक इच्छाओं से धर्म करते-करते धीरे-धीरे आगे बढ़ना है और समझ बढ़ते ही शुद्ध धर्माचरण में आना है। कर्मवशात् हम पाप कर बैठते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में भी पाप हेय (छोड़ने जैसा) लगना चाहिए। वास्तव में तो करने योग्य आचरण तो शुद्ध धर्म ही है। यह तो मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे पापाचरण करना पड़ रहा है।
कृष्ण महाराजा के अनेक रानियाँ और अनेक राजकन्याएँ थीं। जब राजकन्याएँ विवाह के योग्य हो गईं तो उन्हें अपने पास बुलाकर यही प्रश्न करते- बिटिया! तुम्हें दासी वनना है अथवा रानी? सभी कन्याएँ कहतीं, हमें रानी बनना है। कृष्ण राजा कहते- रानी बनना है तो जाओ मेरे भाई श्री नेमीनाथ परमात्मा के पास और चारित्र अंगीकार करो। इस तरह सभी को चारित्र मार्ग पर भेजते थे। यदि कोई कह देते कि मुझे दासी बनना है, तो उसकी शादी करवाते, पर उसे भी किसी प्रकार प्रतिबोध देकर चारित्र मार्ग पर भेज देते थे। वे भीतर से जानते थे, संसार हेय है, छोड़ने जैसा है। स्वयं अन्दर से अपनी आत्मा को धिक्कारते थे कि, 'देखो मेरा भाई सम्पूर्ण विश्व के जीवों को तार रहा है और मैं अभी तक
आरंभ, समारंभ के भोग में डूबा हुआ हूँ।' राजपाट को भोगते हुए भी उनका मन सदैव मोक्षाभिलाषी बना रहता। चित्त रत्नत्रयी की प्राप्ति में उद्विग्न बना रहता। कृष्ण महाराजा को भी संसार तो हेय ही लगता था। चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने से चारित्र ग्रहण नहीं कर पा रहे थे।
रत्नत्रयी की आराधना ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, यही मोक्ष का मार्ग है। इससे ही संसार का उच्छेद होता है। समकिती आत्मा को संसार में पाप करना भी पड़ता है तो उसका मन सदैव मोक्ष मार्ग पर ही होता है।
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