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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना थी। संसार मजे से भोग सकू, इसलिए शान्ति प्राप्त की है ना? इस प्रकार की मन की शान्ति को धर्म नहीं कहा जा सकता है। अनुबन्धका प्रभाव अपनी मूल बात अनुबन्ध यानि क्या? बन्ध की परम्परा। जीव जब-जब कर्म बथ करता है तब इस अनुबन्ध के कारण ही जीव परम्परा चलाने वाले कर्मों को बांधता है। यानि ये कर्म जब उदय में आएंगे तब अपना चित्त, अपने भाव, अपने परिणाम, अपनी मनोदशा कैसी स्थिति में होंगे, यह निश्चित करने वाला यह अनुबन्ध है। इससे जब ये उदय में आएं, तब यदि पाप का अनुबन्ध होगा तो अपनी बारह बज जाएगी और पुण्य का अनुबन्ध होगा तो कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि पुण्य के अनुबन्ध की उपस्थिति में जीव को सबुद्धि ही प्रकट होती है और पाप के अनुबन्ध की हाजरी में जीव को दुर्बुद्धि प्रकट होती है। बंधे हुए कर्मों के उदय काल में विचारधारा कैसी होनी चाहिए? मनःस्थिति कैसी हो? यह अनुबन्ध के आधार पर निश्चित होगा। यह अनुबन्ध अच्छा या खराब कैसे बंधता है, इस पर हम विचार करते हैं। शुभानुबन्धकाउपाय जिस जीव को विवेक बुद्धि प्रकट नहीं हुई, मात्र शुभ प्रवृत्ति करता रहता है; उसे भी पाप का ही अनुबथ होता है। यह अनुबन्ध एक भव तक नहीं चलता, भव की परम्परा तक चलता रहता है। इसलिए अनुबन्ध खराब होगा तो पतन निश्चित है और अनुबथ अच्छा होगा तो उत्थान निश्चित है। फिर किसी को एक भव, किसी को दो-पाँच भव भी अनुबन्ध के अनुसार पतन और उत्थान अवश्य होने वाला है। जब तक विवेक बुद्धि पैदा न होंगी, तब तक पाप का अनुबन्ध होगा ही। _ 'विवेक अर्थात् जो जैसा है उसे वैसा देखना, लाभदायक को लाभदायक तरीके से, नुकसान करने वाले को नुकसान करने वाले तरीके से, हितकारी को हितकारी तरीके से, अहितकारी को अहितकारी तरीके से, देखना उसका नाम विवेका' ऐसा विवेक प्रकट हो तब पुण्य का अनुबन्ध होता है। विवेक आने से उसे सम्पूर्ण संसार असार लगेगा और आत्मा व आत्मिकगुण ही सार लगेंगे। सार-असार का भान स्पष्ट होने से हेयोपादेय की बुद्धि स्थिर होने से संसार की प्रवृत्ति करते-करते जो अनुबन्ध होगा, वह पुण्य का अनुबथ होगा। जबकि जिसमें विवेक प्रकट हुआ नहीं, उसकी प्रवृत्ति शुभ होने पर भी अनुबन्ध पुण्य का नहीं, पाप का ही होगा। क्योंकि संसार असार नहीं लगा। इसलिए बध और अनुबन्ध की संक्षिप्त व्याख्या यह है कि 'बन्ध भावों पर निर्भर करता है और अनुबन्ध मान्यता पर Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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