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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना शासन प्राप्त होने के पश्चात् आत्मा में गुण की दरिद्रता कैसे रह सकती है? मोह राजा! तेरा नियंत्रण दुनियाँ पर चलता होगा परन्तु जिसने जिनशासन प्राप्त कर लिया, उस पर नहीं चल सकता है।' केवली भगवन्त फरमाते हैं- 'हे सुधन श्रेष्ठि! इससे भी अद्भुत आश्चर्य तुझे तेरी ही अयोध्या नगरी में अपनी आँखों के समक्ष देखने को मिलेगा।' वैराग्य की भावना पर पाठकों के लिए यहाँ पृथ्वीचन्द्र राजा का कथानक विस्तार से प्रस्तुत किया जा रहा है जैन शासन के इतिहास में ऐसे-ऐसे महापुरूषों के कथानक हैं कि वे चाहे जैसी भी स्थिति में रहे हों, उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके जगत् में एक आश्चर्य का सृजन किया है। वैसे तो जैन शासन में केवलज्ञान मुश्किल नहीं है, आसान है; यदि उत्तम भावना जाग जाये तो। ऐसे ही इतिहास-प्रसिद्ध एक पात्र हैं राजा पृथ्वीचन्द्र। राजा पृथ्वीचन्द्र की कथा पृथ्वीचन्द्र अयोध्या नगरी में हरिसिंह राजा और पद्मावती रानी के लाडले पुत्र थे। कल्पवृक्ष के अंकुर की तरह वृद्धि पाते हुए, माता-पिता के लिए आनंद का वे एकमात्र आधार थे। . एक बार मुनि भगवंत के दर्शन करते हुए उन्हें जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके प्रभाव से उन्हें पूर्व के उन्नीस भवों के आध्यात्मिक साधना का परिणाम बीसवें भव में देखने को मिला। .. पूर्वभव की साधना का जाति स्मरण ज्ञान होते ही पृथ्वीचन्द्र राजकुमार समग्र संसार वास से विरक्त हो गये। गृहवास अब कारावास समान लगने लगा। संसार की प्रत्येक प्रवृत्ति में वे उदासीन बन गये। युवावस्था के बावजूद संसार के किसी कार्य में मन नहीं लगता। मोहाधीन माता-पिता को दुःख हुआ और वे सोचने लगे कि इसे संसार में विलासी कैसे बनाया जाये? उन्होंने सोचा कि शायद स्वर्ग की अप्सरा समान, उत्तम कुल में उत्पन्न हुई राजकन्याओं के साथ इसका विवाह कर देने से यह सांसारिक सुखों में डूब जाएगा। इसका यह धर्ममय आचरण तब तक ही है, जब तक वह कामिनी के नेत्र-बाणों का शिकार नहीं बन जाता। अतः शीघ्र ही इसका विवाह कर देना चाहिए। माता-पिता पृथ्वीचन्द्रकुमार के समक्ष विवाह की बात करते हैं तब राजकुमार अपने अन्तर्मन की उच्च भावनाओं को माता-पिता के समक्ष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि 187 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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