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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना 'हे पूज्य! जीव ने अनादिकालीन संसार चक्र में जो सुख भोगे हैं, जिन भौतिक पदार्थों को भोगा है, उन्हें अगर इकट्ठा कर दें तो उनके सामने मेरु पर्वत एक छोटी गेंद जैसा लगेगा। इतने सुखों का उपभोग करने के बावजूद भी जीव को कभी तृप्ति का अनुभव ही नहीं हुआ। हे माता जी-पिता जी! जिन सुखों से किसी को कभी भी तृप्ति नहीं मिली, ऐसे सुख भोगने के लिए आप मुझसे क्यों आग्रह कर रहे हैं? मेरा मन इन विषय भोगों से सर्वथा विमुख हो चुका है। कुमार की इस निरासक्ति को देखकर माता-पिता अतिशय खिन्न हो गये। ___माता-पिता का प्रबल आग्रह देखकर, उनके अतिशय दबाव के कारण और भोगावली कर्म बाकी हों तो उनकी जंजीर तोड़ने के लिये उदासीन भावपूर्वक पृथ्वीचन्द्र कुमार विवाह के लिये तैयार हुए। ___धूमधाम से आठ कन्याओं के साथ पृथ्वीचन्द्रकुमार का विवाह महोत्सव संपन्न हुआ। माता-पिता कुमार को मग्न बनाना चाह रहे थे, पर कुमार तो भग्न हृदयपूर्वक लग्न जीवन में बंध रहे थे। . तुम जिसे 'प्रभुता में पदार्पण' कहते हो, कुमार को तो वह 'पशुता में पदार्पण'. लगता था। तुम्हारी और कुमार की दृष्टि में कैसा जमीन-आसमान का अंतर है! उमंग से भरी आठों पत्नियाँ पृथ्वीचन्द्र को रिझाने के लिये उन्हें घेर कर बैठ गईं, पर पृथ्वीचन्द्र ने अपनी वैराग्य भावना, विषय सुखों की भयंकरता, आतंरिक अनासक्ति और भय से छूटने के लिये विरति की झंखना को ऐसी दर्दभरी भाषा में व्यक्त किया कि आठों नवपरिणिता पृथ्वीचन्द्रकुमार से भी अधिक विरक्त हो संसार त्याग को उतावली हो उठीं। कैसी योग्य पत्नियाँ मिली होंगी पृथ्वीचन्द्र कुमार को। कैसी उनकी भी लघुकर्मिता होगी। सुख हो, समृद्धि हो, युवावस्था हो और भोग के सभी साधन मौजूद हों, पर उन्हें भोगने की बात तो दूर, उन सभी का इतनी निस्पृहता पूर्वक त्यागा . माता-पिता तो चिंता में पड़ गये कि इसे सांसारिक बनाने के लिये इसका विवाह करवाया, पर इसने तो अपनी आठों पत्नियों को भी वैरागी बना दिया। अब क्या करें? उन्हें कुमार को राजगद्दी पर बैठाने का ख्याल आया और उन्होंने कुमार को राजगद्दी स्वीकार करने के लिये आग्रह किया। पर कुमार की जरा भी इच्छा नहीं थी। अतः उन्होंने माता-पिता को खूब समझाया भी, पर उनके अतिआग्रह के कारण अन्ततः उनका राज्याभिषेक भी हुआ। तब भी उन्हें उन प्रवृत्तियों में जरा-सा भी आंनद, आसक्ति अथवा आतुरता नहीं थी। बिल्कुल निर्लिप्त रहते हुए जीव-दया का विशेष पालन करते-कराते हुए Jain Education International For Person188rivate Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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