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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना और प्रजा का निःस्वार्थ भावपूर्वक पालन करते हुए वे राजा के रूप में अपने दायित्वों का संपूर्णतः पालन कर रहे थे। राजसिंहासन उन्हें जरा-सा भी लुभा नहीं सका।
वे तो यही सोचते रहते कि तत्त्वदृष्टि से देखता हूँ तो लोग जिसे गीत-संगीत कहते हैं, वे सारे मुझे विलाप लगते हैं। लोग जिसे नृत्य गान कहते हैं, वे मुझे सिर्फ विडंबना रूप लगते हैं। लोग जिसे आभूषण मानते हैं, मुझे तो उनका निरर्थक बोझ लगता है। इतना ही नहीं, इन सारे सांसारिक सुखों का परिणाम तो भयंकर दुःख ही है। इन्हीं भावों में रमण करते हुए पृथ्वीचन्द्र राजा भावना भाते हैं
- कब मैं निर्ग्रन्थ साधु बनूंगा? - कब मैं द्रव्य एवं भाव से मूंड बनूंगा? - कब मैं सर्वसंग से विराम पाकर आत्मभाव में लीन बनूंगा?
- कब मैं परिषह उपसर्गों को शांति से सहन करते हुए अपने कर्मों को समाप्त कर पाऊँगा?
इन्हीं भावों में लीन बने पृथ्वीचन्द्र राजा की राजसभा में एक बार गजपुर नगर से सुधन नामक एक उत्तम व्यापारी आया। राजा ने उससे पूछा कि पृथ्वीतल पर भ्रमण करते : हुए तुमने क्या कोई आश्चर्य देखा है?
तब उस व्यापारी सुधन ने बताया कि गजपुर नगर में श्री गुणसागर नामक श्रेष्ठिकुमार संपूर्ण निरासक्त भावपूर्वक गृहवास व्यतीत करते थे। माता-पिता के अतिशय .. आग्रह के अधीन हो अन्ततः उन्हें आठ कन्याओं से विवाह रचाना पड़ा, पर आठों कन्याओं
के साथ पाणिग्रहण करते-करते गुणसागर तो जाने कैसे अनुपम भावों में आरूढ़ हो गए, - संसार से विरक्त हो गये और वहीं के वहीं उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
उन्हें तो हुआ ही, पर उनकी आठों पत्नियों को भी केवलज्ञान। राजन्! मैं अभिभूत, दिग्मूढ़ बना वहाँ खड़ा था, और केवली गुणसागर ने मुझसे कहा कि इससे भी अधिक विस्मित कर देने वाली बात तुम्हें अयोध्या में पृथ्वीचन्द्र राजा की राजसभा में देखने
को मिलेगी और इसी उद्देश्य से मैं यहाँ आया हूँ। .. इतना सुनते-सुनते पृथ्वीचन्द्र राजा भी गुणानुराग की भावनाओं की श्रेणी पर ऐसे .. आरूढ़ हो, संसार बंधनों को तोड़ डालने के लिए ऐसे कटिबद्ध बने कि राजसिंहासन पर
बैठे-बैठे पृथ्वीचन्द्र राजा को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। उनकी पत्नियों को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। स्वयं सौधर्म इन्द्र ने आकर उनका केवलज्ञान महोत्सव किया।
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