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________________ परमात्मा बनने की कला - चार शरण परोपकार में उत्साहित नहीं होने देती, उदारता गुण को प्रकट नहीं होने देती। हे प्रभु! आप कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि आपकी कृपा से मेरी स्वार्थ-वृत्ति का विनाश हो और मैं परोपकार में रत बनूं। सद्गुरु कायोग हे वीतराग! आपके सामर्थ्य से मेरे पुण्य का उदय हो, जिससे मुझे सुगुरु की प्राप्ति हो। हे देवाधिदेव! आपके प्रभाव से मेरे मानादि कषाय बन्द हों। उनके प्रति मेरा नम्रता भरा विनयपूर्ण व्यवहार हो। उनके प्रति मेरी श्रद्धा और समर्पण का भाव दिनप्रतिदिन बढ़े। सुगुरु के वचनों का अनुसरण ___ हे नाथ! सद्गुरु मिलें, उनके वचन सुनने को मिलें, परन्तु ऐसी शक्ति नहीं कि उनका पूर्ण पालन कर सकूँ। इसलिए हे वीतरागा आपकी कृपा से मुझमें ऐसा बल प्रकट हो कि इन गुरु भगवन्तों के वचन की मैं पूर्ण उपासना कर सकूँ। उनकी हितशिक्षानुसार अपने जीवन को सुधार सकूँ। उनकी आज्ञा का पूर्ण पालन कर अपने मोहनीय आदि कर्मों का विनाश कर सकूँ। हे नाथ! ये आठ अमूल्य गुण मुझे मात्र इस भव में ही नहीं चाहिए बल्कि जब तक मेरा मोक्ष न हो, तब तक मुझे जितने भी भव करने पड़ें, उन सभी भवों में मुझे इन विशिष्ट आठ वस्तुओं की प्राप्ति हो। अब मेरा कोई भव ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिससे मेरे पास ये आठ गुण न हों। .. इस प्रार्थना सूत्र द्वारा यही जानना समझना है कि गुरु के वचनों पर सच्ची श्रद्धा होनी चाहिए। गुरु के वचनों पर तर्क नहीं करना चाहिए। सच्ची श्रद्धा से गुरु वचन को स्वीकार करना एवं अखण्ड पालन करना चाहिए। यही सच्ची श्रद्धा सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करवा देती है। श्रद्धा के बिना ज्ञान शुष्क है, ज्ञान से भी श्रद्धा बलवान है; क्योंकि भीतर के राग-द्वेष के भावों की विशुद्धि तो गुरुजनों पर श्रद्धा रखने से ही होती है। ___ सदैव इन्हीं भावों से प्रभु के समक्ष प्रार्थना करनी है। प्रभु सुविशुद्ध हैं। अतः आपके समक्ष की गई प्रार्थना फलीभूत होकर रहेगी। परन्तु क्या हमें सच्ची प्रार्थना करनी आती है? अथवा मात्र गतानुगतिक प्रतिदिन की तरह बोलकर आ जाते हैं। अर्थ या भावों का ज्ञान न होने से प्रतिदिन की प्रार्थना समान हो जाती है। जबकि योगों की स्थिरता केवलज्ञान दिला सकती है। सूत्रों के प्रत्येक शब्द मन्त्राक्षर स्वरूप हैं। अनेक रहस्य समाहित हैं इनमें। अपने विचारों से भी ज्यादा अनेक गुणित लाभों से युक्त होते हैं। 122 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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