________________
परमात्मा बनने की कला
दुष्कृत गर्दा सागरोपम तक भोगा है। वहाँ से कर्मों का भार जैसे हल्का हुआ और बाहर आया। तिर्यंच गति में जन्म मिला, पाप टूटे पर उन पापों का अनुबन्ध नहीं छूटा। इसलिए हिंसा आदि पाप चलते रहे। अतः अनुबन्ध तोड़ने के लिए दुष्कृत गर्दा को स्वीकार करना होगा।
ज्ञानी भगवन्तों ने ऐसा नहीं कहा कि अनुबंध को यानि पाप की परम्परा को तोड़ने के लिए मासक्षमण के पारणे मासक्षमण करो। ऐसा न कहकर बल्कि एकदम सरल उपाय बताये हैं। दुष्कृत्य की गर्दा करो। गुरु के सान्निध्य में जाकर दुष्कृत्य-पापों को प्रकट कर आत्मशुद्धि करो। गोशालाकोसबुद्धि आई
___ सातवें दिन गोशाला की भवितव्यता जागृत हुई। गोशाला यानि जिनशासन का प्रत्यनीक (द्वेषी) होने पर भी अन्त समय अपने पापों के प्रति घृणा के भाव जगे। मैंने ये क्या किया? भगवान महावीर तो मेरे धर्मगुरु कहलाते हैं और दीक्षा लेने के पश्चात् मुझे कितनी बार मृत्यु से बचाया। मैं जानता था कि आप ही सर्वज्ञ हैं फिर भी उन्हीं से सीखी गई तेजोलेश्या का गलत प्रयोग मैंने उन्हीं पर किया। मेरे जैसा अज्ञानी दुनियाँ में और कोई नहीं होगा?
उस गोशाला ने जो गर्दा की, वह तो यहाँ बहुत कम शब्दों में प्रस्तुत है। परन्तु उसने जो दिल से गर्दा की, उससे भी ज्यादा गर्दा हमें अपने पापों की करनी होगी। गोशाला से भी ज्यादा पाप कर्म हमने किए हैं। हम जितने ऊँचे स्थान पर पहुँचे हैं, उतनी ही बड़ी-बड़ी हमारी गलतियाँ हैं। उच्च स्थान प्राप्त करने के पश्चात् मर्यादा से युक्त जीवन शोभास्पद होता है; और देव-गुरु-धर्म-जिनशासन को प्राप्त करने वाला उच्च व्यक्ति यदि ऐसा अधम कार्य करता है तो वह निश्चित रूप से निन्दनीय है, निन्दा का पात्र बनता है। श्रेष्ठ मानव जीवन प्राप्त कर यदि एक प्रतिशत धर्म और नव्वाण प्रतिशत विषय कषाय में बिता दें तो इमसे बड़ा गुनहगार और कौन हो सकता है?
सर्वप्रथम आत्मसाक्षी से अपने पापों की निन्दा करनी तथा उसमें जो भावों की परिणति होती है, उसके बाद गुरु के पास अपने पापों की गर्दा करनी चाहिए। गुरु जो प्रायश्चित दें, उन्हें सम्यक् रूप से वहन करना। आत्मसाक्षी से निन्दा के बाद गुरु साक्षी से गर्दा होनी चाहिए। गोशाला निन्दासे गहा की ओर
गोशाला अपने पापों की जबरदस्त निंदा कर रहा है। अन्तिम समय सभी को एकत्रित करके कहता है- मैंने कल तक जो कुछ कहा था, वह सब गलत था। मैं सर्वज्ञ नहीं
153 For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org