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________________ परमात्मा बनने की कला जहाँ रुपये के लिए कषाय नहीं हो । स्व, पर के हित की भावना न्याय एवं अहित की भावना अन्याय कहलाती है। हरिभद्रसूरि जी महाराज भी कषाय के वशीभूत हो गये। गलत निर्णय ले चुके थे। बौद्धों के गलत कृत्य पर आवेश में आगे बढ़ चुके थे। उस समय अरिहन्त - देव एवं गुरु की शरण ही उनको कषाय से बचा पाये। उनकी दुर्गति को अटका सके। वे ही हमारे रक्षक हैं, तारणहार हैं। गुरु ने मात्र दो वाक्य लिखे थे- 'जिसने कषाय किया, उसकी आत्मा अनन्त संसार में भटक गई और जिसने क्षमा रखी, उसका मोक्ष हुआ।' यहाँ एक और दृष्टांत प्रस्तुत है गुणसेन का जीव क्षमा रखता है, जबकि इसके विपरीत अग्निशर्मा का जीव क्रोध करता है। अग्निशर्मा ने तापसी दीक्षा ग्रहण की। मासक्षमण के पारणे मासक्षमण की तपस्या चल रही थी। पारणा भी अभिग्रह पूर्वक होना चाहिए; अन्यथा पारणा निष्फल हो जाता है। ऐसे तीन मासक्षमण हो गये। तीनों बार पारणे में गुणसेन से भूल हो गई । अग्निशर्मा तापस का पारणा नहीं हो पाया। दो मासक्षमण के पारणे की भूल तक भाव विशुद्ध थे, किन्तु तीसरे पारणे की भूल में उसके भाव परिवर्तित हुए, भयंकर आवेश आ गया। यह मेरा दुश्मन है। अब इसे मेरे तप का बल दिखा दूँगा । ... और जनम-जनम तक मैं ही इसे मारने वाला बनूँ, उसने ऐसा निदान कर लिया। गलती गुणसेन राजा की थी । कषाय उत्पन्न अग्निशर्मा को हुआ । चार शरण मन बड़ा चंचल है, इसे पकड़ कर रखना पड़ेगा । मन छोटी बात या छोटा कारण होने पर भी भयंकर रूप से बिगड़ जाता है। साधक क्षपक श्रेणी यूं ही नहीं चढ़ने लगता है। कोई चमड़ी उतार रहा हो, उस व्यक्ति के प्रति भी बहुत अच्छे भाव हों, तभी गुणों की श्रेणी चढ़ी जाती है। हमें इन दोनों कथानकों में यह देखना है कि अरिहंत देव, गुरु आदि की शरण स्वीकार करने से उसी भव में कैसे रक्षा हुई और शरण नहीं स्वीकार करने से दुर्गति में जाना पड़ा। अगर अभी भी हमने शरण स्वीकार नहीं किया तो हमारा क्या होगा ? जब गुरु द्वारा संदेश प्राप्त हुआ तो हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज ने विचार किया- 'मेरा क्या होगा ? मैं मरकर कहाँ जाऊँगा? मैंने कितना आवेश किया, कषाय किया। यदि यह संदेश समय पर नहीं मिला होता; दो दिन देरी से मिलता तो कितना पाप, कितना अनर्थ हो जाता। मेरे गुरु ही रक्षक हैं। यह उनकी शरण का ही परिणाम है। ' शरण बने तारण तरण आगमों के प्रमुख भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 'विशेषावश्यक Jain Education International 88 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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