________________
परमात्मा बनने की कला
चार शरण
कर रहा है। सता रहा है। अभी चखाता हूँ मजा।'
रावण विमान से नीचे उतरकर अष्टापद की तलहटी पर आते हैं। नीचे गुफा में बैठकर विचार करते हैं कि सम्पूर्ण अष्टापद को उठाकर बाली सहित लग्ण समुद्र में फेंक हूँ। 1000 विद्याओं के स्वामी रावण अपने विद्या-बल से सम्पूर्ण पर्वत को उठाने का प्रयत्न करते हैं। चारों ओर से पत्थर गिरने लगे। एक साथ पत्थरों के गिरने की आवाज से बालि मुनि का ध्यान विचलित हुआ। इतना भयंकर उपद्रव! उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि रावण अष्टापद पर्वत को उठाकर फेंकने की तैयारी में है। इस पर भी बालि के मन में एक प्रतिशत भी रावण के प्रति गलत विचार उत्पन्न नहीं हुआ। शासन के प्रत्यनिक को कभी शिक्षा स्वरूप सजा देनी भी पड़े, तब भी मन में उसके प्रति कभी भी द्वेष के भाव नहीं होने चाहिए। बालि मुनि के भी मन में रावण के प्रति जरा भी द्वेष भाव नहीं था। मन में मात्र तीर्थ रक्षा के भाव से वे अपना कर्त्तव्य पूरा करते हैं और मुनि मात्र पैर के अंगूठे से पर्वत को दबाते हैं। तुरन्त गुफा के अन्दर बैठे रावण के मुख से जोर से चीख निकलती है, खून की उल्टियाँ होने लगती हैं।
कहने का तात्पर्य तीर्थ रक्षा हेतु कर्तव्य निभाते समय मात्र किसी भी प्रतिपक्षी के - प्रति द्वेष, अरूचि या तिरस्कार के भाव नहीं होने चाहिए। यदि द्वेष आदि के भाव रहेंगे तो . वहाँ स्वयं को डूबना पड़ेगा। - संघ महान् है। गच्छ-मत आदि पन्थ अलग-अलग होंगे, फिर भी हमें अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ना चाहिए। वर्तमान में गीतार्थ गुरु भगवन्तों पर विकट समस्या उपस्थित है, फिर भी देवगुरु की कृपा से सब व्यवस्थित धर्म चल रहा है।
अन्य धर्मी लोगों का कहना है कि हमारे अलावा अन्य सभी काफिर हैं। अन्य . धर्मों में दूसरे धर्मों की निंदा की जाती है, किंतु जैन धर्म में अन्य धर्मों में रहे गुणीजनों की
अनुमोदना करते हैं। अपनी आत्मा संक्लेश से दूर रहे। किसी के प्रति असद्भाव नहीं हो जाए, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं।
137
Jain Education International
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org