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परमात्मा बनने की कला
दुष्कृत
पायेगी ? जहाँ समाधि मरण ही दूर है वहाँ मोक्ष तो दुर्लभ ही है। समाधि काँच से ज्यादा नाजुक है। समाधि को टिका पाना ज्यादा मुश्किल है। जैसे जरा सी टक्कर लगी कि काँच टूट जाता है, वैसे ही जरा से दो शब्द किसी ने कहे, मन खण्डित हो जाता है।
मन में धर्म से विपरीत चिन्तन चला, यानि असमाधि हो जाती है । चित्त की स्वस्थता ही समाधि है। जबकि मन से कुछ विपरीत हो जाए तो मन के विचार ही विपरीत हो जाते हैं। अन्त समय में सम्बन्धीजनों को परिजनों को छोड़कर प्रयाण करना होता है, इसलिए मानव समाधि टिका नहीं पाता है। यदि कोई नवकार मन्त्र भी सुनाते हैं तो उस समय मन स्थिर नहीं हो पाता है। मन तो शारीरिक वेदना में ही जाता है। लाखों प्रकार के अध्यवसाय चित्त समाधि को तोड़ देते हैं।
सद्गति दुर्लभ है, क्योंकि समाधि दुर्लभ है।
मृत्यु के दो रूप
संवेगरंगशाला एवं उत्तराध्ययन सूत्र में मृत्यु के दो रूप बताए गये हैं1. निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण एवं
2. अनिच्छापूर्वक अथवा भयभीत होकर मृत्यु को वरण करना।
समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। मरण के पहले प्रकार को पण्डितमरण या समाधिमरण कहा गया है, और दूसरे प्रकार को बाल (अज्ञानी) मरण या असमाधिमरण कहा गया है। पहला ज्ञानीजन का देहत्याग है, तो दूसरा अज्ञानी एवं विषयासक्त का मरण है, इसलिए ज्ञानी अनासक्त होने से एक बार ही मृत्यु का वरण करता है, बल्कि अज्ञानी विषयासक्त होने से बार-बार मृत्यु को प्राप्त करता है।
अज्ञानी मृत्यु के भय से कांपता है तथा उससे बचने का प्रयास करता है; किन्तु ज्ञानी मृत्यु का वरण करता है । मृत्यु से भयभीत नहीं होता। उस अवस्था में भी वह निर्भय होता है। अत: अमरता की दिशा में आगे बढ़ता है। साधकों के प्रति भगवान महावीर का • यही सन्देश था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर देहासक्ति छोड़कर उसका मित्रवत् स्वागत करो।
• मरण के पाँच प्रकार
संवेगरंगशाला के रचयिता जिनचन्द्रसूरि जी ने मरण विभक्ति के पश्चात् बारहवें द्वार में मरण के स्वरूप की चर्चा की है। इसमें सर्वप्रथम रचनाकार पण्डितमरण का
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