SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृतं अनुमोदन सुकृत अनुमोदना. हे सार्वभौम चक्राधीश्वर प्रभु! शरणागति और दुष्कृत-गर्दा की जलधारा से सिंचकर संविग्न बना हुआ अब मैं यथाशक्ति सुकृत की अनुमोदना का कार्य शुरू करता हूँ। हे मेरे मस्तक के ताज, मेरे हृदय के हार, मेरे प्यारे प्रभु!!! 1. इस विश्व में तीनों काल में हुए अनन्तानंत अरिहंत परमात्माओं के धर्मदेशानादि. उपकारों की अनुमोदना करता हूँ। 2. सर्व सिद्ध भगवन्तों के अनन्त, अक्षय, अव्याबाधादि स्वरूप सिद्धभाव की अनुमोदना करता हूँ। 3. समस्त आचार्य भगवन्तों के पंचाचार पालन रूप सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 4. सर्व उपाध्याय भगवन्तों के ज्ञानदान आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 5. समस्त साधु भगवन्तों के स्वाध्याय आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 6. सभी श्रावकों के मोक्षमार्गरूप मुनि की वैयावच्च आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता 7. जो निकट में मोक्ष जाने वाले हैं, जो शुद्ध सरल आशय वाले हैं, ऐसे इन्द्रादिक देव और भव्यात्मा; ऐसे सभी जीव तथा मोक्षमार्ग के साधनरूप जो कोई सदाचार आदि शुभ कार्य हों, उनकी मैं सच्चे हृदय से अनुमोदना करता हूँ। प्रसंग के अनुसार अब पाप-प्रतिघात और गुण बीजाधान का तीसरा उपाय 'सुकृत-अनुमोदना' का वर्णन करते हैं। संविग्न बना हुआ मैं शक्ति अनुसार सुकृत का सेवन करता हूँ। 'संविग्न' यानि संवेग वाला- अर्थात् मोक्ष और मोक्षमार्ग का अभ्यर्थी। 'सेवन करता हूँ' यानि फिर अनुमोदन करता हूँ। किसकी अनुमोदना करना? सर्व अरिहंत भगवन्तों की धर्मदेशना इत्यादि उत्तम अनुष्ठान और सर्व सिद्ध भगवन्तों की सिद्ध दशा। करण-करावण और अनुमोदन, ये तीनों एक समान फल देने वाले कहे जाते हैं। यहाँ सूत्रकार उच्च अनुष्ठान की अनुमोदना को जैसे स्वयं कार्य करने के समान जितना महान लाभ बताते हैं। त्रिकाल के अनन्त जिनेश्वर देवों के अनन्त दुष्कर अनुष्ठान का हमें आचरण करना है, तो क्या है हमारे पास इतना समय और इतनी शक्ति ? पर इन अनुष्ठानों की Jain Education International For Pers175& Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy