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________________ परमात्मा बनने की कला दुःखरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे। संसार दुःख-रूप है, दुःख-फलक है और दुःखानुबंधी है। संसार सच में दुःख रूप है, क्योंकि वह आत्मा की विभाग दशा है। आत्मा का स्वभाव सुखरूप है, तो आत्मा का विभाव दुःख रूप ही होगा। आत्मा का स्वभाव मोक्ष है, मोक्ष में सम्पूर्ण सुख है- अक्षय, अनन्त, अनुपम सुख है, जबकि संसार आत्मा का विभाव है, पुद्गल के आधार पर कायम है। आत्मा के विभाव में दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, ये बात हमें हमारे दिमाग में दृढ़ कर लेनी चाहिए। ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि जैसे समुद्र में जलचर जीवों का कोई पार नहीं होता, उसी प्रकार संसार में दुःखों का भी कोई पार नहीं होता। संसार का यही एक स्वरूप है। संसार की यही एक नितान्त वास्तविकता है। हमारी आत्मा मोह मूढ़ बन गई है। अत: उसे संसार में दुःख दिखाई नहीं देता, यह तो उसकी विकृति ही है। मोतियाबिन्द के मरीज को अखबार के अक्षर दिखाई नहीं देते, वह तो उसकी आंख की विकृति के कारण है, अक्षर हैं नहीं, ऐसा तो नहीं है न। उसी प्रकार मोहाधीन आत्माओं को संसार में दुःख की प्रतीति न हो - ऐसा हो सकता है, पर उससे संसार का स्वरूप नहीं बदल जाता। संसार में तो दुःख है ही। संसार स्वयं दुःखरूप ही है। ऐसे संसार में अज्ञानी जीव जो कुछ प्रवृत्ति करते हैं, वह पाप ही होता है और . पाप का फल भी दुःख ही होता है। अतः संसार को दुःख-फलक कहा गया है। ऐसे पापमय संसार की छोटी-बड़ी प्रत्येक प्रवृत्ति का फल तो दुःख ही होता है। इसीलिए पूज्य उमास्वाति जी म. 'श्री प्रशमरति प्रकरण' में लिखते है दुःखद्विट् सुखलिप्सुः मोहान्थत्वाददृष्ट गुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते।। दुःख का द्वेषी व सुखों का लालची जीव, मोह के भयानक अंधत्व के कारण किसी भी प्रवृति में गुण एवं दोष को यथार्थ रूप में नहीं देख सकता, जान भी नहीं सकता, इसी कारण जीव जो भी प्रवृत्ति करता है, उसके फलस्वरूप वह दुःख ही पाता है। यह सच है कि जगत् का प्रत्येक जीव दुःख से घबराता है। जीव मात्र जो कुछ भी करता है, दुःख से बचने के लिए ही करता है, परन्तु विडम्बना यही है कि उन प्रवृत्तियों के 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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