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________________ परमात्मा बनने की कला प्रस्तावना अनन्तोपकारी-अनन्तज्ञानी-परमतारक परमात्मा ने 'जगत् के सभी जीव दुःखों से मुक्त हो जाएँ एवं शाश्वत् सुख को प्राप्त करें', ऐसी मनोभावना से धर्मतीर्थ की स्थापना की। जिनशासन सम्पूर्ण विश्व में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि इसमें जो वैश्विक सिद्धांत दर्शाये गये हैं, वे दूसरी जगह कहीं भी देखने को नहीं मिलते है। जैसे- आत्मा अनादि है, कर्म-पुद्गल अनादि हैं और दोनों का संयोग भी अनादिकाल से है। इस संयोग के प्रभाव से सभी आत्माएं एक समान होने पर भी जीव अलग-अलग प्रकार से कर्म सहित उत्पन्न होते हैं। इस कर्म संयोग की विचित्रता के कारण जीव को विभिन्न प्रकार से सुख-दुःख आते रहते हैं। अपनी आत्मा इस विचित्र दशा से कैसे मुक्त बने और सच्चा सुख कैसे प्राप्त करें, इसी के लिए वास्तविक तत्त्व का स्वरूप प्रभु ने बताया है। अनादिकाल से इस संसार में रहते हुए भी आत्मा इस संसार से मुक्त नहीं हुई, कारण है-अज्ञानता। अज्ञानता के कारण ही आत्मा जिस स्थान में रहती है, वह स्थान वास्तव में कैसा है, कैसे-कैसे दुःखों से घिरा हुआ है, यह भी सोच-समझ नहीं पाती है। दुःख मुख्यतः सात हैं- 'जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग'। इन सात दुःखों से संसार ठसाठस भरा हुआ है। वास्तव में यही संसार का वास्तविक स्वरूप है। - संसार शब्द ही यह सूचित करता है- सम्+सार अर्थात् जिसमें सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, और सम्यक्चारित्र ही सारभूत है, शेष सब कुछ असार एवं अशरण है। 'धर्मरत्न प्रकरण ग्रंथ' में श्रावकाचार की बात करते हुए श्री शांतिसूरीश्वर जी महाराज ने संसार कैसा है? इसका वर्णन करते हुए कहा है दुहरूवं दुक्खफलं, दुहाणुबंधिं विडंबणारूवं। . संसारमसारं, जाणिउण न रइं तहिं कुणई॥ अर्थात्- संसार दुःख-रूप है, दुःख-फलक है, दुःखानुबंधी है एवं आत्मा की विडम्बना स्वरूप है। ऐसे असार संसार को जानने वाला श्रावक कहीं भी आनन्द नहीं मानता। संसार दुःखमय है। संसार के प्रति वैराग्य भाव जगाने के लिए संसार की दुःखमयता का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। संसार किस प्रकार दुःखमय है, इसका अत्यन्त सूक्ष्मता से वर्णन ज्ञानी भगवंतों ने किया है। ... पंचसूत्र में चिरन्ताचार्य जी ने संसार की असारता का वर्णन करते हुए लिखा है 15 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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