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________________ सम्पन्न हो पाता। स्वास्थ्य अस्वस्थ होने पर भी जब कार्य होता बुलाने पर समय देते थे। यह उनका बहुत बड़ा विनय एवं गुरूजनों के प्रति समर्पण है। ज्ञान-दान के लिए वे पैसा या समय को कभी नहीं देखते। उनके सामने मैं एक छोटी सी साध्वी थी फिर भी आदर-व्यवहार में कहीं कमी नहीं होती थी। ग्रंथ सम्पन्नता का श्रेय आपको ही जाता है। इसके लिए उन्हें साधुवाद अन्तर हृदय से आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। लेखन क्षेत्र में हमारे मनोबल को बढ़ाने एवं इस ग्रंथ की उपादेयता की अभिवृद्धि हेतु हमें जो आशीर्वचन एवं शुभकामनाएं प्राप्त हुई है, निःसंदेह वे हमारे में नूतन ऊर्जा एवं सकारात्मक सोच के लिए प्रेरणादायी बनेगी। मैं उन सभी के प्रति वित्रम कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ और भविष्य में ऐसे ही मार्गदर्शन, आशीर्वाद एवं सहयोग की अपेक्षा करती हूँ। ____ भगिनी साध्वी डॉ. प्रियदिव्यांजनाश्रीजी का प्रस्तुत कार्य में महत्वपूर्ण अवदान रहा है। उनके पुरूषार्थ के बिना इस कार्य पर पूर्णता का कलश कैसे चढ़ता। उन्होंने अपनी उर्वर प्रज्ञा और तीक्ष्ण मेधा से इसे देखा, परखा, जांचा, और आवश्यक संशोधन किये। उनका आत्मीयभाव अभिव्यक्ति का नहीं अपितु स्वानुभूति का विषय है। इस कार्य को सम्पादित करने में साध्वी श्री प्रियशुभांजनाश्रीजी का भी अमूल्य योगदान रहा। बाड़मेर श्री संघ के आराधक भाई-बहिन, आराधना भवन का शांत एवं सुन्दर वातावरण एवं समस्त प्रत्यक्ष परोक्ष रूप के सहयोगी भी धन्यवाद के पात्र हैं। गुरू भक्त परिवार के प्रति भी मैं शुभकामनाएं रखती हुई धन्यवाद देती हूँ। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इस लेखन कार्य में जो भी सहयोगी बने है, उन सबके प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। पाठकगण "परमात्मा बनने की कला'' नामक इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर निर्मल एवं समुज्ज्वल जीवन बनाकर दोषों को नष्ट करें एवं सद्गुणों को लाकर कर्मक्षय करें यही अन्तर मन के उद्गार हैं। यदि प्रमादवश जिनवाणी विरूद्ध कुछ भी लिखा प्रतीत हो तो क्षमा करते हुए कृपया उसे सुधार कर पढ़े, ऐसी विनम अपेक्षा है। आशा है यह ग्रंथ उपयोगी एवं संग्रहणीय बनेगा। आराधना भवन, बाड़मेर (राज.) सुलोचना चराणाश्रिता साध्वी प्रियरंजनाश्री 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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