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________________ परमात्मा बनने की कला पुरूषार्थ में लीन होते हैं। चारों पुरूषार्थ में प्रधान धर्म पुरूषार्थ को कहा है, क्योंकि यही सब कुछ सिद्ध करने वाला है। जब अर्थ, काम और मोक्ष, तीनों धर्म पुरूषार्थ से ही प्राप्त हुए और आगे भी होंगे, तो फिर सभी जीवों को धर्म पुरूषार्थ की साधना ही जीवन में हितकारी है। शुद्ध धर्म के लिए श्री सर्वज्ञ कथित शास्त्रों में विदित धर्म का पूर्णरूपेण परिपालन अति आवश्यक है। सर्वज्ञ वचनानुसारी यह 'पंचसूत्र महाशास्त्र' मंद शक्ति वाले दुषमकाल के जीवों को संक्षिप्त में सर्वज्ञ कथित धर्म का सार जानने के लिए एक रत्न खान के समान है। इसकी अति निपुण सूत्र रचना तो भूखे के लिए घेवर जैसी स्वादिष्ट है। प्रमाणिक शास्त्रों में यह ‘पंचसूत्र' मानव भव में मोक्ष प्राप्त करा देने वाली साधना का बोलता शास्त्र है। ____ अनादि भवसागर में हमने अज्ञान दशा वश दुःखों के ही उपाय ढूंढ़े। दुःखमय दशा भोगी। दुःख की ही परम्परा चली। अव्यवहार-निगोद में ऐसा अनन्तानंतकाल नारकी से अनन्त गुणा दुःखमय जन्ममरणादि का अनुभव होने के पश्चात् वहाँ से छूट कर व्यवहार-निगोद आदि में एक ही महामोह के उदय को लेकर अनन्त पुद्गलपरावर्त बिताये। जिसमें कृष्णपक्षीय अमावस्या जैसे मनुष्य भव भी प्राप्त किये और हार गये। परन्तु अब आज जो सर्वज्ञ शासन की प्राप्ति हुई है तो उससे आसन्न भवी बनकर 'दो कदम भोर की ओर' (पंचसूत्र) के महाप्रकाश से पशु जीवन को पार कर इस उत्तम जीवन को उज्ज्वल बनाना है। परमेश्वर का शासन स्वीकार कर 'प्रथम सूत्र' 'पाप प्रतिघात गुणबीजाधान' में बताये गये मार्ग की आराधना करेंगे तो ही पाप का क्षय करके सहजानन्दी गुणों के बीजों का वपन कर पायेंगे। वहाँ सम्यग्दर्शन के शुक्लपक्षीय ज्योत्सना जैसे प्रकाश में पुण्यानुबन्धी पुण्योदय बढ़ेगा और मोह का क्षय होने से अन्त में मोक्ष का पूर्णिमा चन्द्र प्रकाशित होगा। यही सामर्थ्य इस पंचसूत्र में है। प्रथम सूत्र - पाप प्रतिघात-गुणबीजाधान प्रस्तुत 'पंचसूत्र ग्रंथ' में कुल पाँच सूत्र संकलन किये गये हैं, किन्तु हम यहाँ 'दो कदम भोर की ओर' (प्रथम भाग) में पहले सूत्र का ही विवचेन कर रहे हैं। इस सूत्र के विवेचन हेतु हमने इसे पाँच खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम खण्ड में मंगलार्थ अरिहन्त परमात्मा की नमस्कार पूर्वक स्तुति की गई है। फिर अरिहन्त भगवान के चार विशेषणों का विस्तार से वर्णन प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अरिहन्त प्रभु के चार अतिशयों को भी दर्शाया गया है। 'वीतराग' विशेषण के प्रसंग में राग का बल द्वेष दोष से भी ज्यादा है। उसके अनेक हेतु व इनसे भी ज्यादा मोह खतरनाक है। उनके कारण दर्शाये गये हैं। प्रशस्त - अप्रशस्त राग द्वेष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। देवेन्द्र पूजा का रहस्य, सर्वज्ञ 18 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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